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षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ तेथी ए मार्गणाधारे वर्त्तता जीव, कार्मणयोगी न होय, तेमज औदारिक मिश्रयोगी पण न होय, शेष मनोयोग चार, वचनयोग चार, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र अने औदारिक, ए तेर योग होय. एवं पंचावन मार्गणा थई.
उरलयुग के औदारिक अने औदारिकमिश्र, ए बे योग तथा त्रीजो कम्म के कार्मणयोग, ए त्रण काययोग अने पढमंतिममणवय के पहेलो अने बेहेलो, ए बे मनयोग तथा एज बे वचनयोग एटले सत्यमनोयोग, असत्यामृषामनोयोग, सत्यवचनयोग,असत्यामृषावचनयोग.एवं ए चार योग तथा पूर्वला त्रण मलीने सात योग ते केवलगंमि के केवलज्ञान अने केवल दर्शन, ए बे मार्गणाद्वारे होय, तिहां वेदनीयादिक कर्मथी श्रायुःकर्म थोडं होय, तेवारें तेने सर कर वाने अर्थे केवली केवलसमुदघात करे, त्यां प्रथम समयें शरीर प्रमाण जामो एवो उंचो, नीचो, लोकप्रमाणे मंग करे, त्यां औदारिक योगी होय. बीजे समयें बन्ने पासें पसरें, तिहां लोकार्कवच्चे कपाटप्राय होय. तिहां एक औदारिक अने बीजो मिश्र ए बे योगी होय, त्रीजे समयें बे योग लब्धि प्रयुंजे तेथी मंथाणानी पेरें चार श्रेणी करे. चोथे समये अांतरा पूरे, पांचमे समयें मंथांतर संहरे, ए त्रण समय कार्मणयोगी होय, ब समयें मंथ संहरे, सातमे समयें कपाट संहरे, ए बे समय औदारिकमिश्रयोग होय. आठमे मंग संहरे तिहां औदारिकयोगी होय. ए रीतें त्रण काययोग नाववा, तथा अनुत्तर विमानवासी देवता संदेह पूजे, तेनो प्रत्युत्तररूप अव्यरूप मन परिणमे तेवारे ते देवताने सूक्ष्म मनोजव्य विषय करे. एवं अवधिज्ञान, तेणे करी ते मनोजव्य जाणे, संदेह टले, एम अव्यमनोयोग केवलीने होय. अने नावमन केवलीने न होय अने वचनयोग तो उपदेशादिक आपतां प्रश्नोत्तर कहेतां होय. ए रीते सात योग केवलज्ञानी अने केवलदर्शनीने होय. एवं सत्तावन मार्गपाहार थयां ॥३१॥
मणवय उरला परिदा, र सुमि नव तेन मीसि सविनवा ॥
देसे सविनविज्गा, सकम्मुरल मीस अहखाए ॥ ३३ ॥ अर्थ- मणवय के मनोयोग चार, अने वचनयोग चार, उरला के० औदारिक काययोग एक, एवं नव के नव योग ते परिहार के० परिहार विशुकिचारित्र अने सुहुमि के सूक्ष्मसंपरायचारित्रनेविषे लाने. शेष ब योग न होय जे जणी ए बे चारित्रने विषे वर्तमान साधु होय ते लब्धि प्रयुंजे नही, तेथी वैक्रियना बे योग
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