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________________ ७०६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. Ա सम्यकदृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि जीव होय, तथा तिर्यंच प्रायोग्य उगणत्रीश बांधततो तिहां मनुष्य द्विकने स्थानकें तिर्यंचद्विक कहेतुं, तथा मनुष्य प्रायोग्य बांधतां मिथ्यादृष्टि जीव पण लेवो, छाने सास्वादने उत्कृष्ट योग न होय, तेजणी ते न लीधो; तथा त्रेवीश, पच्चीशादिकना बंधस्थानकें प्रथम संघयणनो बंध नथी; अने त्रीश, एकत्रीशना बंधस्थान के प्रकृति जाग घणो होय, तेथी उत्कृष्ट प्रदेश बंध नहोय... तथा शातावेदनीयनो उत्कृष्ट प्रदेशबंधक सम्यकदृष्टि तथा मिथ्यात्वी सात कर्मनो बंधक होय. जो पण दशमे गुणठाणे उत्कृष्ट योग ने तो पण तिहां उत्कृष्ट स्थिति बंध न होय, तेथी प्रदेशबंध पण विवक्ष्यो नहीं. एम तैंतालीस प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामी का. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ १ ॥ निद्दा पयला डु जुल, जयकुच्चाति संमगो सुजइ ॥ आदार डुगंसेसा, नक्कोस परसगा मिचो ॥ २ ॥ अर्थ - निद्दापला के० निद्रा अने प्रचला, डुअल के० हास्य अने रति तथा शोक ने रति, ए बे युगल, एवं ब प्रकृति, जयकुच्छा के० सातमी जय, आठमी जुगुप्सा, तिa ho नवमं तीर्थंकर नामकर्म, ए नव प्रकृतिनो उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामी संमगो ho सम्यकदृष्ट्यादिक अपूर्वकरणांत पांच गुणस्थानकवर्त्ती जीव सात कर्म बांधतो श्रायुदलनो जाग अधिको लाने, तेजणी. तथा निद्रा प्रचलाने चोथे गुणठाणे श्री किन दलनो जाग अधिक होय, तथा मिश्रगुणठाणे पण थीएसी त्रिकनो बंध नथी, पण ते उत्कृष्ट योगी न होय, तेजणी ते न कह्यो. तथा दास्यादिक बे युगल, जय ने जुगुप्सा, ए व प्रकृतिनो पण मोहनीयनी तेर प्रकृतिने बंधें तथा नव प्रकृतिने बंधे अल्पप्रकृति जणी जाग घणो यावे, तेजणी लेवो, तथा जिननामकर्मनो उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामी सम्यक्दृष्टि मनुष्य देवगति प्रायोग्य जिननाम सहित उगणत्रीश प्रकृति बांधतो होय ते लेवो, जे जणी त्रेवीशादिक प्रकृतिनां बंध स्थानकें तो जिननाम कर्मनो बंधज नथी, अने त्रीश प्रकृति मनुष्य प्रायोग्य बांधतां तथा एकत्रीश देवगति प्रायोग्य बांधतां प्रकृति घणी होय, तेथी नागें दल स्तोक घ्यावे, तेथी ते न लीधा. सुई के सुयति सुसाधु एटले प्रमाद रहित साधु श्रप्रमत्त अने पूर्वकरण, एबे गुणठाणे वर्त्ततो उत्कृष्ट योगी देव प्रायोग्य त्रीश प्रकृति आहार डुंगं के हारकद्विक सहित बांधतो वे समय सुधी उत्कृष्ट प्रदेश बंध करे, शेष गुणठाणे आहारकद्विकनो बंध नथी, तेथी ते न लोधा, तथा उत्कृष्ट योग स्थानके जीव बें समय पर्यंत रहे. पढी योगस्थानक फरे, तेथी सर्वत्र उत्कृष्ट योगी बे समय सुधीज Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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