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________________ ४७३ बंधस्वामित्वनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ॥ श्रथ जीवस्थानेषु गुणस्थानान्याह ॥ बायर असन्नि विगले, अपजि पढम बिअ सन्नि अपजत्ते ॥ अजय जुअ सन्निपऊ, सवगुणा मिबसेसेसु ॥६॥ अर्थ-बायर के बादरएकैप्रिय, असन्नि के० असं झिपंचेंजिय, विगले के० विकलें. जिय त्रण, अपति के ए पांच अपर्याप्ताने पढमबिश्र के पहेलुं अने बीजुं गुणगणुं होय, अने सन्निअपजत्ते के सन्निया पंचेंजिय अपर्याप्ताने अजयजुश्र के अविरतिगुणगणा सहित त्रण गुणगणां होय, अने सन्निपङो के सन्निपंचेंजियपर्याप्ताने सबगुणा के० सर्वगुणगणां होय, तथा सेसेसु के शेष सर्व जीवने मित्र के मिथ्यात्वगुणगणुं जाणवू ॥ इति समुच्चयार्थः ॥६॥ ___ बादर, एकेप्रिय, पृथ्वी, अपने प्रत्येक वनस्पतिमाहे तथा बीजा असन्निया पंचेंजिय तिर्यंच तथा विकलेंजिय, ते बेंजिय, तेंघिय, अने चौरिंजिय, ए पांच अपर्याप्त जीवन्नेदें पहेलुं मिथ्यात्व अने बीजु सास्वादन ए बे गुणगणां होय. तेमाहे पण सास्वादन गुणगणुं करणअपर्याप्तानेज होय, अने पहेलुं गुणगणुं लब्धियपर्याप्ता तथा करणअपर्याप्ता ए बेहुने होय. जे जणी सम्यक्त्ववमतो जीव, ए पूर्वोक्त ए पांच करण अपर्याप्तामांहेज अवतरे पण लब्धिअपर्याप्ता पांचमध्ये न अवतरे, तेथी तेमांहे सास्वादनपणुं न संनवीयें. तथा बादर अपर्याप्त तेज, वायुमध्ये अने पांच सूममध्ये तो सम्यक्त्व वमतो पण को जीव श्रावी उपजे नहीं, तेश्री तेने मिथ्यात्वगुणगणुंज होय, ए पांच नेदें गुणगणां कह्यां. बहा संझी पंचेंजिय अपर्याप्ता जीवन्नेदमध्ये तो एक मिथ्यात्व, बीजुं सास्वादन, अनेत्रीजु अविरतिसम्यक्दृष्टि, ए त्रण गुणगणां संजवे, केमके परजवथी को जीव सम्यक्त्व सहित ए संझी पंचेंजियमांहे श्रावी अवतरे, तेने अपर्याप्तावस्थायें अविरति चोथु गुणगणुं होय. तथा जे जीव सम्यक्त्व वमतो एमांदे अवतरे, तेने शरीरपर्याप्ति पूर्ण कस्या पहेतुं सास्वादनगुणगणुं होय. ए बे विना शेष जीवोने मिथ्यात्वगुणगणुं होय, लब्धि अपर्याप्ता सन्निया पंचेंजिय जीवने एकज मिथ्यात्वगुणगणुं होय. सातमा सन्निया पंचेंजियपर्याप्ता ए जीवन्नेदें मिथ्यात्वथी मामीने अयोगी लगें सर्वे चौदे गुणगणां संनवे, केम के मनुष्य पण सन्निया पंचेंजिय ने तेने चौदे गुणगणां होय तथा केवली पण अव्य मनसंबंधे सन्नि कह्यो, तेथी बेहां बे गुणगणां पण मनुष्यमां जाणवां. समस्त ए कह्या जे सात जीवनेद तेथी शेष रह्या जे सूक्ष्म एकेजिय पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता बेंजियपर्याप्ता, तेंजियपर्याप्ता, चौरिंजियपर्याप्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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