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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ७१३ जे जणी जघन्य स्थिति थकी एक समयाधिक, हिसमयाधिक, त्रिसमयाधिक, करतां करतां एम उत्कृष्ट स्थितिस्थानकपर्यंत एकेकी प्रकृति असंख्यात नेदें बंधाय, ते जणी प्रकृति नेदथकी स्थिति नेद, असंख्यात गुणा बे. ते स्थितिनेद थकी विश्बंधद्यवसाया के स्थितिबंधना अध्यवसायना नेद असंख्यातगुणा बे, जे जणी एकेको स्थितिबंध असंख्याते अध्यवसाय स्थानकें तीत्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर, एणी पेरें कषायोदयकृत जीवनो अशुद्ध परिणतिनेद ते अध्यवसाय कहीये. ते अध्यवसाय स्थानक को पण कर्मना एक मुहर्तमात्र स्थितिबंधना हेतुनूत रहे, ते माटें स्थितिनेद थकी असंख्यातगुणा अध्यवसाय होय. जे नणी जघन्य स्थितिबंध पण असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय स्थानकें होय . तेथकी वली समयाधिक समयाधिक स्थिति तो विशेषाधिक विशेषाधिक अध्यवसाय स्थानकें होय, एम पट्योपमना असंख्यातमा नाग मात्र स्थितिनेद अतिक्रम्या पली जे स्थितिनेद होय, तिहांसुधी बमणां अध्यवसायस्थानक थाय. एम गुणाक स्थानक पण असंख्यातां होय, तेमाटें स्थितिनेदथकी असंख्यातगुणां अध्यवसायनां स्थानक होय. श्रहींयां कर्मनुं जे अवस्थान एटले रहवं, तेने स्थिति कहीयें, तेनो जे बंध, तेने स्थितिबंध कहीयें, तथा कषायजनित जीव परिणामने अध्यवसाय कहीये. ते अध्यवसायने विषे जीव वसे, तेने स्थान कहीये. ते अध्यवसाय जीवने वसवानां स्थान , माटें एजने अध्यवसायस्थान कहीये. तिहां स्थितिबंधना कारपचूत जे अध्यवसाय स्थानक, तेने स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानक कहीयें. तेथकी अणुनागगणअसंख{णा के अनुनाग एटले रसबंध, हेतुनां अध्यवसायस्थानक, असंख्यातगुणां डे. तिहां अनु एटले पश्चात् बंधोत्तर कालें अनुनवीयें, ते अनुजाग शब्दें रस कहीयें, ते असंख्याता . जे नणी अंतरमौहूर्तिक स्थितिबंधाध्यवसायस्थानक होय, ते नगर सरखा तथा ते मध्ये एक, बे, त्रण, चार, पांच, उ, सात अने उत्कृष्ट जे आठ सामयिक रसबंधाध्यवसाय स्थानक होय, ते घर सरखा नाना जीवनी अपेक्षायें असंख्याता होय, तथा एक जीवनी अपेक्षायें तो देश, काल, देोत्र, नाव नेदें जघन्य स्थितिबंध पण असंख्यातलोकाकाशप्रदेश प्रमाण रसबंधाध्यवसायस्थानकें पामीये, ते थकी समयाधिक स्थितिविशेषे वली अधिक अधिकतर रसबंधनां अध्यवसाय स्थानक पामीयें, एम सर्वस्थितिबंधाध्यवसाय स्थानने विषे रसबंधाध्यवसायस्थानकनी जावना करवी. ए कारणथी सर्व स्थितिबंधाध्यवसा. यथी रसबंधाध्यवसायस्थान, असंख्यगुणां जाणवां. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ए५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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