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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ս ६३५. जेम उज्ज्वल परिणामनी वृद्धि थाय, तेम तेम हीन हीन स्थिति बंधाय तेथी पोताना बंधास्थानक मांहे जे अत्यंत विशुद्ध बंधाध्यवसायस्थानक होय, तिहां जघन्य स्थितिबंध होय तेथी एने शुभ कहीयें. पुण के० वली नर के० मनुष्यायु तथा अमर के देवायु ने तिरियान के० तिर्यंचायु, ए त्रण श्रायुने मुत्तं के० मूकीने शेष एकसो सत्तर प्रकृतिनी अपेक्षायें ए लेवु." शेष युनी स्थितिबंधनो विशेष कहे बे. मनुष्यायु, देवायु, अने तिर्यगा, एनी स्थिति श्रापणा बंधाध्यवसाय स्थानकमध्यें विशुद्धाध्यवसायें बंधायाने मलीन परिणामें जघन्य स्थिति बंधाय, ए विशेष जावं. ॥ ५२ ॥ वे बंधनुं विषमताएं योगनी विषमतापणे थाय बे. तेथी योगस्थानक निरूपवाने योग कहेवाने, अंतर गाथा लखीयें ढैयें. " परिणामा लंबण गहण, साहणं तेण लद्धनामतिगं ॥ सान्नुन्नसा, पवे सवि समीकयपएसं ॥ १ ॥" हवे गाथाना कहे बे. जे वीर्य विशेष करी श्रदारिकादिक पुजल ग्रहण करे तथा तेने श्वासोश्वासादिकपणे परिणमावीने निःसर्ग एटले स्वाभाविक हेतुक शक्ति विशेषनी सिद्धिने ा अवलंबे जेम कोइ एक आजारी माणस, नगरमां जमवा निमित्तें लाकडी कालीने उठे, पढी जेवारें सामर्थ्य थाय तेवारें लाकडीने मूकी आपे, तेम जीव जाषादिक पुल अवलंबी तजन्य करणवीर्य थये थके तेने मूकी आपे ते परिणाम अवलंबन ग्रहण हेतु जे वीर्य, तेने योग कहीयें. ते योगना मन, वचन ने कायाने नेदें करी त्रण नाम होय वे. तिहां योग, बल, वीर्य, उत्साह, शक्ति, चेष्टा, करण, ए सर्व एना पर्याय नाम जाणवां, अने ते जीवने वीर्यातरायने क्षयोपशमें करी सर्व प्रदेश सरखं वे पण जे प्रदेश कार्यने ढूंकडा होय तिहां घणुं वीर्य जपाय, ने बीजा प्रदेशें थोडुं जणाय; जेम हाथे करी घको उपाडतां हाथ मात्रा प्रदेश ढूंकडा ने तिहां घणुं चलाचलपणुं होय अने खजाने प्रदेशें तो वली घणुंज थोडुं होय तेथी वीर्यनुं विषमपणुं होय. संसारी जीवने वीर्यांतराय . देश घातीने विचित्र क्षयोपशमें करीने अनेक जातनुं क्षायोपशमिक वीर्य, द्मस्थनुं होय वे मध्यें मन चिंतना पूर्वक आहार विहारादिक जे करण व्यापार ते अनिसंधिजवीर्य कहीयें, अने जे मन चिंतना विना केवल वचन अने कायाना व्यापार एकेप्रियादिकने बे तथा पंचेंद्रियने पण मुक्त आहारनुं धरनुं धातु मलपणे परिणमाaj, ते अन जिसंधिज वीर्य कहीयें. तथा कायिक जावें जे करणवीर्य केवलीनुं ते पण बे नेदें बे. एक सलेश्य वीर्य ते सयोगीनुं ग्रहण परिणमन अवलंबन रूप ते त्रण योगना ने त्रिविधें बे तथा बीजुं योगीनुं लेश्य वर्य जाणवुं. तथा बद्मस्थनुं Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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