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________________ ६२६ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ तिहिक, नीचैर्गोत्र, एपंञ्चाशी प्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध खामी बायरपजोगिंदीउ के लब्धिपर्याप्तो बादर एकेजियपर्याप्तो स्वस्व प्रायोग्य विशुद्धिस्थानकें वर्ततो मिथ्यात्वी जीव होय, जे जणी दशमा तथा नवमा गुणस्थानकवर्ति साधु पण जघन्यबंधनो अधिकारी होय हे, परंतु तेने ए पंञ्चाशी प्रकृतिनो बंध नथी तेथी ते बीजी प्रकृतिना अधिकारी बे; तेथी असंख्यातगुणो बादरपर्याप्ता एकेंजियने जघन्यबंध स्वामीत्व जाणवो. ए तथाविध विशुद्धिमाटें बांधे अने अनेरा एके प्रिय तो तेवी विशुद्धिश्री रहित डे माटें अधिकी बांधे, अने विकलेंप्रिय तथा पंचेंघिय तो स्वजावेंज अधिकी बांधे ते माडे ते न लेवा. एथी बीजा सर्व बंध अधिक .एम जघन्यस्थितिबंध स्वामी कह्या. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४५ ॥ ॥ हवे उल्लष्टादि स्थितिबंधने विषेज चार नांगा स्थितिबंधना कहे .॥ नक्कोस जद मीयर, नंगासाइ अणाइधुव अधुवा ॥ चउदा सग अजहन्ना, सेसतिगे आन चउसु ज्दा ॥ ४६॥ अर्थ-उकोसजहमीयरनंगा के एक उत्कृष्टस्थितिबंध, बीजो जघन्य स्थितिबंध, ते बे थकी इतर एटले बीजा विरोधिनांगा बे कहे. एक अनुत्कृष्ट बीजो अजघन्यस्थितिबंध, एवं चार नंग थया. ए चारमांहे सर्व स्थितिबंध संग्रह्या. तिहां जे सर्व प्रकृतिनो श्रापापणा स्थितिबंधमांहे अधिक स्थितिबंध ते उत्कृष्टस्थितिबंध जाणवो. जेम ज्ञानावरणीय कर्मनो त्रीश कोडाकोडी सागरोपमनो संपूर्ण बंध, ते उत्कृष्ट स्थितिबंध कहीयें अने ते थकी एकसमय हीन, बे समय हीन करता करतां यावत् अंतरस्थितिलगें जेटलां स्थितिबंधनां स्थानक बंधाय, ते सर्व अनुत्कृष्टस्थितिबंधनां स्थानक जाणवां. ते स्थानक असंख्याता होय एटले एक उत्कृष्ट थकी जिन्न ते सर्व अनुत्कृष्टस्थितिबंधनां स्थानक जाणवां. एम ए बे बंधमांहे सर्व स्थितिबंधनां स्थानक संग्रह्यां; तथा जे स्थितिबंध स्थानकथी उतुं बीजुं को स्थितिबंधनुं स्थानक न होय ते जघन्यस्थितिबंध स्थानक जाणवू, अने तेथी समयाधिक समयाधिक स्थानक लेतां यावत् उत्कृष्ट स्थितिपर्यंत जे असंख्यातां स्थानक थाय, ते सर्व अजघन्य स्थितिबंधनां स्थानक जाणवां. एम ए बे बंधमांहे पण सर्व स्थितिबंधनां स्थानक संग्रह्यां, ए रीतें जेवारें उत्कृष्ट स्थिति निन्न विवदीयें, तेवारें तेथी बीजां सर्व अनुत्कृष्ट बंधस्थानक होय, अने जेवारें जघन्य स्थितिबंध एक निन्न लेखवीये तेवारे तेथी बीजा सर्व अजघन्य स्थितिबंधनां स्थानक होय. ए रीतें ए चार बंध कह्या. हवे तिहां वली सादि अनादि प्रकारे चार नांगा कहे जे. जे बंधव्यवछेद थया पली फरी बंधाय, ते प्रथम सा के सादिबंध अने जे बंधना प्रवाहनी आदि न. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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