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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ११ त्कृष्ट अने जघन्य प्रदेशबंधें सादि छाने सांत, ए बे जांगा कह्या. ते प्रायें व्यवहा या जीवने संजवियें बैयें. अन्यथा उत्कृष्ट प्रदेशबंध सन्निया जीवने दोय, अने नादि निगो दिया . जीवें तो संझीपएं पाम्युंज नथी, तो ते उत्कृष्ट प्रदेशबंध क्यां करे ? तेथी तेने अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध पण चार जांगे संजवे, ते अहीं न कह्यो. एम योगवृद्धियें प्रदेश वृद्धि होय ते जणी हवे योगस्थानकनुं स्वरूप कहे बे. ॥ अथ योगस्थानान्याह || हवे योगस्थानकनी संख्या कहे बे. ॥ सेढि संखिजसे, जोगठाणाणि पयडि वि ने ॥ विइ बंधनवसाया, अणुभाग गए असंख गुणा ॥ ए५॥ अर्थ-से दिसं खिजसे के० श्रेणीने श्रसंख्यातमें जागें जेटला आकाश प्रदेश होय, ते घनीकृत लोकनी एक प्रदेशिक श्रेणी तेनेसूची श्रेणी सात राज प्रमाणनी कहीयें, तेने संख्यातमे जागें जेटला श्राकाश प्रदेश बे तेटला जोगहाणाणि के० योग स्थानक होय, ते जावीयें ढैयें. सर्वश्री अल्पवीर्यवान् जब प्रथम समयें वर्त्ततो एवो सूक्ष्म निगोदि लब्धि पर्याप्तो जीव, तेना असंख्याता जीव प्रदेश बे ते मध्ये पण जे सर्व जघन्य वीर्य प्रदेश एटले जे प्रदेशमां सर्वश्री जघन्य वीर्य होय, तेना वीर्यना श केवलीनी प्रज्ञारूप शस्त्रें करी बेदतां एटले केवलीयें कल्प्यो जे वीर्य विजाग अर्थात् जे वीर्यांनो अंश केवली पण कल्पी न शके तेने जावाणु पण कहीयें. तेहवा लोक संख्यातमे जागे वर्त्तता जे असंख्याता प्रतर, तेना प्रदेश प्रमाण वीर्यांशें करी सहित ते पण असंख्याता थया, परंतु ते असंख्याताने सत्कल्पनायें दश कल्पीयें, तेवा दश वीर्यांश सहित एवा जे जीवना प्रदेश असंख्येय प्रतर प्रमा नो समुदाय परंतु सत्कल्पनायें तेने त्रण मांडीयें तेनी प्रथम जघन्य वर्गणा जाणवी, ते थकी वली एक वीर्यांरों अधिक वीर्यवंत जीव प्रदेशनो समुदाय तेनी बीजी वर्गणा जाणवी, ते थकी वली एक वीर्यांशें अधिक जीव प्रदेशना समुदायनी त्रीजी वर्गणा जाणवी. एम एकेक वीर्यांशें अधिक अधिक जीव प्रदेशनी समान जातिरूप वर्गणा तेवी घनीकृत लोकनी एक प्रदेशिक श्रेणी तेना असंख्य जाग प्रदेश 'प्रमाण वर्गणा जेवारें थाय, तेवारें असत्कल्पनायें तेने व वर्गणा थापीयें, तेने प्रथम स्पर्द्धक कहीयें, जे जणी एकोत्तर वीर्य विजाग वृद्धियें करीने परस्परें स्पर्धा करे एव वर्गणाने स्पर्द्धक कहीयें. ए प्रथम स्पर्द्धकनी चरम उत्कृष्ट वर्गणाने विषे जेटला वीर्य विजाग बे, ते थकी एक, बे यावत् संख्याते वीर्यांशें अधिक वीर्यवंत जीव प्रदेश न पामीयें, परंतु ते थकी असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण वीर्यांशें अधिक Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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