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संग्रहणीसूत्र.
१४१ ॥मणुयदारं नल कहेतां हवे मनुष्यकार ते जुवन विना आठे प्रतिधारे करी कहीएं
वैये. तेमां प्रथम स्थितिधार अने अवगाहनाहार ए बे द्वार कहे . ॥ गननर ति पलियाक॥तिगान नकोस ते जहन्नेणं ॥ मुबि
म उहावि अंत मुहु॥ अंगुल असंख लागतणू ॥ १४ ॥ अर्थ-अहींयां मनुष्य बे प्रकारे . एक गर्नज अने बीजा गर्नविना जे उपन्या ते समुर्बिम. तेमां गर्नज मनुष्यनुं उस्कृष्टुं तिपलियाउ के त्रण पस्योपमनुं आयुष्य जाणवू, अने तेनुं तिगाउ के त्रण गाउनुं देहमान उत्कृष्टुं जाणवू. श्रने जहन्नेणमुनिमाहाविरंतमूहु के गर्नज मनुष्यनुं जघन्यायु अंतरमुहूर्त जाणवू. तथा समूर्बिम मनुष्यनुं जघन्य तथा उत्कृष्टुं अंतरमूहुर्तायु जाणवू. तथा अंगुलासंखजागतणू के गनज मनुष्य, देहमान जघन्यथी अंगुलने असंख्यातमे नागे जाणवू. अने समूर्छिम मनुष्यनुं जघन्य तथा उत्कृष्टुं देहमान अंगुलनो असंख्यातमो नाग जाणवू.
ए समूर्डिम मनुष्य ते श्रढीवीप समुअनेविषे गर्नज मनुष्यना उच्चार ते वडिनीत, पासवण-ते लघुनीत, खेल-ते श्लेष्मा, संघान, नासीकामल, वमन करेलुं पित्त, शुक्र, वीर्य, शोणित, लोही, मृत कलेवर, स्त्री पुरुषने संयोगे, नगरने खाले, बीजां सर्व अशुची स्थानक, एटलां स्थानके समुर्छिम मनुष्य उपजे. ए समूर्बिम असंही मनरहित मिथ्यात्वी समस्त पर्याप्तिए अपर्याप्तो. केमके, समूर्डिमने पांच पर्याप्ति , श्रने ए समूर्बिम मनुष्य आहार शरीर पर्यातिएं इंजियपर्याति पूरण करी मरण पामे, ते कारणे समूर्छिम सर्व पर्याप्तिए अपर्याप्तो थको काल करे.
वली संख्याता आयुष्यवाला मनुष्यने वैक्रिय शरीर जघन्य अंगुलना संख्यातमा जाग प्रमाण अने उत्कृष्टुं लाख योजन काजेलं होय प्रमत्त यतिने आहारक लब्धिवं. तने, थाहारक शरीर होय. ते थाहारक शरीर जघन्यथी देशे जणुं एक हाथ, अने उत्कृष्टुं एक हाथ पूर्ण होय. तेजस थने कार्मण ए बे शरीर सर्व संसारी जीवने औदारिक, वैक्रिय अने थाहारक शरीरने संयोगे तपपणे परिणमे. एटले मनुष्यने श्रायुष्य अने अवगाहना कही. ॥ २४॥
॥ हवे उपपात उतना विरहकाल कहे .॥ बारस मुहुत्त गन्ने ॥ श्यरे चनवीस विरदन कोसो ॥ जम्म
मरणे सुसम ॥ जदम संखा सुरसमाणा ॥ २४ ॥ अर्थ-गप्ने के गर्नज मनुष्यने जन्मथाश्री विरह, एटले अंतरकाल तथा मरणआश्री अंतरकाल उत्कृष्टो बार मुहूर्त होय, एटले गर्नज मनुष्य एक उपन्या पनी बी
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