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________________ संग्रढणीसूत्र. ११. ए उदाहरणे देखावे. जेम शर्करप्रजाने विषे उत्कृष्टी स्थिति त्रण सागरोपम बें; छाने रत्नप्रजानी उत्कृष्टी स्थिति एक सागरोपम बे; तेनो विश्लेष करीएं त्यारे शेष बे सागरोपम रहे. ते बे सागरोपमने शर्करप्रजाना अगी खारे प्रतरे जाग यापीएं; तेवारे एक जागमां एक सागरोपमना अगी यारीया बे जाग यावे ते बेने वांबित प्रतर साथे गुणिएं, तेवारे प्रथम प्रतरे एकंस गुण्या बे जागज़ होय. तेने उपर वली रत्नप्रजा पृथ्वीनी उत्कृष्टी स्थिति एक सागरोपमनी बे, ते नेली करीएं, तेवारे प्रथम प्रतरे एक सागरोपम ने उपर एक सागरोपमना श्रगी चारी या बे नाग यावे, एटली शर्करप्रजा पृथ्वीना प्रथम प्रतरे उत्कृष्टि स्थिति जाणवी. एरीते प्रत्येक प्रतरे बे बे जाग वधारीएं, त्यारे गीयार जागे सागरोपम बंधाय. एम यावत् गीयारमे प्रतरे ऋण सागरोपम पूर्णायु याय ने पेहला प्रतरनी उत्कृष्टि स्थिति ते बीजे प्रतरे जघन्य जावी. ए पण यंत्र देखी समजजो. एमज त्रीजी नरकपृथ्वीए पण एहज करण जाणवुं. तो ए त्रीजी वालुप्रजा, चोथी पंकप्रजा; पांचमी धूमप्रजा, बही तमः प्रजा, ए चारेनी यंत्र स्थापना जोजो, ने सातमी तमतमाप्रमाए एकज प्रतर बे. त्यां पांच नरकवासा बे. त्यां काल, महाकाल, रौरव, महारौरव, ए चार स्थानके जघन्य बावीश सागरोपमायु, अने उत्कृष्टुं तेन्रीश सागरोपमायु े. अने पांचमो पश्वाणो नरकावासो बे, त्यां अजघन्योत्कृष्ट तेत्री सागरोपमायु बे. एम साते नरकने विषे ज्यांसुधी जीवे त्यांसुधी सदा वेदना वेदे . यांख मीची उघाडीएं एटलो वखत पण नारकीने सुख नथी. किंतु एकांत दुःखज बांध्युं बे; ते वेदे . दवे नारकीने एक क्षेत्र वेदना, बीजी अन्योन्य वेदना, अने त्रीजी परमाधामिकृत वेदना, ए त्रणे वेदना, किंचित् वि कहे . तेमां प्रथम क्षेत्रवेदना कहे बे. एक रत्नप्रना, बीजी शर्करा, त्रीजी वालुका, एना नारकी शीतयोनिया बे, अने योनि स्थान विना बीजी जे नरकभूमिका बे ते उल बे, तेमाटे नारकी शीतयोनिया ते उस वेदना वेदे बे. त्यां जेवा श्रग्निवर्णखेरना अंगारा ते करतां पण अत्यंत नरकभूमिका उम जाणवी. एम बीजा पण नरकोनेविषे जावना जाणवी. पंकप्रजा नरके उपरना घणा नरकावासा तो उम बे, घने नीचला थोमा नरकावासा थोमा शीत बे. धूमाने विषे नरकावासामा शीतल घणा बे, छाने उम्म थोडा बे. तथा बडी ने सातमीए एकांत शीतल भूमिका बे, छाने नारकी एकांत उभयानिया बे. परंतु नीचे नीचे नरके अनंतगुण तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम बे. ते नरकोमध्ये उमवेदना ने शीतवेदना जे Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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