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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६६७ अधिकारी नथी. तथा मिथ्यात्वी पण अतिसंक्लिष्टे वीश कोमाकोमी सागरोपम प्रमाण स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानके वर्त्तता तिर्यगछिक, नरकछिक, हुंमसंस्थान, बेवहुं संघयण, अशुजखगति अने नपुंसक वेदादिक प्रकृतिनो निरंतरपणे उत्कृष्ट रस बांधे. तिहांथी वली अढार कोमाकोमी सागरोपम स्थिति बंधाध्यवसाय स्थानके होय, तेवारें कुजसंस्थान, कालिकासंघयण, पराक्त्त हुँमसंस्थान, अने बेवहा संघयणनो बंध करे, तिहां मंदरस बांधे, अने पंदर कोमाकोमी सागरोपम स्थिति बंधाध्यवसाय स्थानकथी तिर्यग्छिकनो मनुष्यधिक साथे परावर्ति बंध करे, तेम नपुंसकवेदनो स्त्रीवेद साथे परावर्ति बंध करे, अने दश कोडाकोडी सागरोपम स्थिति बंधाध्यवसाय स्थानक पढ़ी दौरोग्यत्रिकनो सौजाग्यत्रिक साथे परावर्ति बंध करे. तिहाथी कोमाकोमी सागरोपम किंचिन्न्यून लगें परावर्ति बंधाय, तेथी हीन स्थितिबंध अध्यवसाय स्थानकें केवल मनुष्यहिक, वज्रषजनाराच संघयण, समचतुरस्त्रसंस्थान, शुज विहायोगति, सौजाग्यत्रिक, पुरुषवेद, ए प्रकृति निरंतरपणे बांधे, परंतु तिहां मंदरस न बांधे, जे नणी विरोधिनी प्रकृति साथे परावर्ते बांधतांज मंदरस बांधे. एम एकसो ने चोवीश प्रकृतिना जघन्य रसबंध खामी कह्या. ॥ ३ ॥ हवे जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, ए चार प्रकारना रसबंधने विषे सादि, अनादि, सांत अने अनंत, ए चार नांगा विचारे . जे थकी हीन को रसबंध न पामीये, ते जघन्य रसबंध जाणवो, अने ते विना बीजा सर्व अजघन्य रसबंध जाणवा. ए रीतें ए बेहु नेदमां सर्व रसबंध ग्रहण कस्या; तथा उत्कृष्टनी अपेक्षायें लेतां जे थकी अधिक तीव्र रसबंध बीजो को नश्री ते उत्कृष्ट रसबंध जाणवो; अने ते थकी एकादि रसावित्नागें हीन एवा सर्व रसबंध ते अनुत्कृष्ट रसबंध कहीयें. एम पण ए बे नेद मांडे सर्व रसबंध ग्रहण कस्या, तिहां मूल प्रकृति आठ अने उत्तर प्रकृति एकसो ने चोवीश, ए बेहुना एना चारे रसबंधे सादि अनायादिक नांगा ग्रंथ लाघव करवाने साथेंज कहे बे. - चन तेअ वन्न वेअणि, अनाम णुक्कोस सेस धुवबंधी॥ घाईणं अजहन्नो, गोएविदो इमो चउदा ॥४॥ अर्थ-चउतेश्र के तैजस, कार्मण, अगुरुलधु अने निर्माण, ए तैजसचतुष्क; वन्न के शुजवर्णादिक चार; ए आठ नामकर्मनी उत्तरप्रकृतिना अनुत्कृष्ट रसबंधे सादि, अनादि, सांत श्रने अनंत, ए चारे नांगा होय, जे नणी ए श्राप प्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध, अपूर्वकरणनामा श्रापमा गुणगणाना बहा नागने प्रांतें पोताना चरम बंधे एक उत्कृष्ट रस स्थानक होय, अने ते विना सर्व अनुत्कृष्ट रस स्थानक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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