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षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ ५७ अर्थ-अहींयां बीजा पदना त्रण पद साथै प्रथमनां त्रण पद जोमीयें, एटले साय के एक शांता वेदनीय, चन के चारे बंध हेतुयें करीने बंधाय, तिहां मिठ के मिथ्यात्वगुणगणे मिथ्यात्वप्रत्ययिकी बंधाय, केम के ए वेदनीयनी प्रकृति मिथ्यात्वथी मामीने सयोगी गुणगणा लगें बंधाय , ते माटें. एक मिथ्यात्वें मिथ्यात्वप्रत्ययिकी बंधाय, अने बीजं साखादन, त्रीजें मिश्र, चोथु अविरति, पांच, देशविरति, ए चार गुणगणां सुधी थविरति प्रत्ययिकी बंधाय, अने प्रमत्तादिक पांच गुणगणे कषायप्रत्ययिकी बंधाय. अने उपशांतमोहादिक त्रण गुणगणे योगप्रत्ययिकी बंधाय. एम शातावेदनीयना बंधमांहे चार हेतुमांहेलो एक हेतु होय, त्यां लगे पण बंधाय. ते जणी चतुःप्रत्ययिकी बंधाय.
नरकत्रिक, एकेंजियादिक चार जाति, थावरनाम, सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, श्रने साधारणनाम, ए स्थावरचतुष्क तथा ढुंमसंस्थान, आतपनाम, नपुंसकवेद, बेवहुं संघयण श्रने मिथ्यात्वमोहनीय, ए सोल के शोल प्रकृति मिथ्यात्वने उदयें बंधाय, ते विना न बंधाय. ते नणी मिल के मिथ्यात्वप्रत्ययिकी कहीये. - अनंतानुबंधीया चार, मध्यसंस्थान चार, मध्यसंघयण चार, कुखगति, दौर्जाग्यत्रिक; एवं शोल तिर्यंचत्रिक, मनुष्यत्रिक, औदारिकहिक, स्त्रीवेद, नीचैर्गोत्र, श्रीणकीत्रिक, एवं उगणत्रीश; उद्योतनामकर्म, वजषजनाराचसंघयण श्रने अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय, ए पणतीसा के पांत्रीश प्रकृति मिथ्यात्व गुणगणे मिथ्यावप्रत्ययिकी बंधाय. अने मिथ्यात्वथी आगले गुणगणे अविरति प्रत्ययिकी बंधाय. एम मिथ्यात्व तथा अविरति, ए बे मांहेलो एक हेतु होय तो पण बंधाय, परंतु ए विना बीजा हेतुयें न बंधाय, तेजणी ए पांत्रीश प्रकृति मिथ्यात्व तथा अविर के० अविरति पञ्चश्या के प्रत्ययिकी बंधाय.
तथा आहारगजिणवऊसेसाठ के थाहारकधिक श्रने जिननामकर्म वर्जीने शेष ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी ब, अशातावेदनीयनी एक, मोहनीयनी पंदर, नामनी बत्रीश, उच्चैर्गोत्रनी एक अने अंतरायनी पांच, ए पांश प्रकृति तथा देशविरतिगुणगणे जे शमश: प्रकृतिनो बंध बे, तेमांहेथी जिननाम तथा शातावेदनीय, ए बे प्रकृति विना शेष पांश प्रकृति, जेवारें मिथ्यात्व गुणगणे बंधाय, तेवारें मिथ्यात्वप्रत्ययिकी कद्देवाय. अने जेवारें सास्वादनादिक चार गुणगणा लगें बंधाय, तेवारें अविरति प्रत्ययिकी बंधाय, अने तेथी आगल कषाय प्रत्ययिकी बंधाय. ए रीतें जोगविणुतिपच्चश्या के एक योग बंधहेतु विना शेष एक मिथ्यात्व, बीजो
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