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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ १ ग पुम संजलणा दो, निदा विग्घावरण खए नाणी॥ देविंद सूरी लिदिअं, सयगमिणं आय सरणा ॥ १० ॥ अर्थ-पढी बग के हास्यादिक ब प्रकृति खपावे, पठी पुम के० पुरुषवेद खपावे, तिहां जो स्त्रीवेदें कपकश्रेणी श्रारंने तो प्रथम नपुंसकवेद खपावे, पनी पुरुषवेद खपावे, पनी हास्यादिक उ प्रकृति खपावे, अने ते पठी स्त्रीवेद खपावे, अने जो नपुंसकवेदें श्रेणी आरंने तो पहेढुं अनुदीरण पण स्त्रीवेद खपावे,पली पुरुषवेद खपावे, पठी हास्यादिक प्रकृति खपावे, ते पड़ी नपुंसकवेद खपावे, अने जो पुरुषवेदें श्रेणी आरंने, तो प्रथम नपुंसक वेद खपावे, पठी स्त्रीवेद खपावे, पनी हास्यादिक उ प्रकृति खपावे, ते पठी पुरुषवेद खपावे. ___ हमणां जे पुरुषवेदे श्रेणी आरंने, ते स्त्रीवेददय साथे पुरुषवेद तथा दास्यादिक प्रकृतिनो बंध व्यवछेद करे, तिहां नोकषायनां दल बे श्रावली शेष हुँते वेद पतग्रह न थाय, तेथी संज्वलन क्रोधमांदे संक्रमावे, एम जे अंतरमुहत्” हास्यादि षट्रक क्षीण थाय, ते समय पुंवेदनो बंध, उदय श्रने उदीरणा विछेद थाय, अहीं बे श्रावली बांध्यु जे पुरुषवेद दल, ते विना बीजुं सर्व वीण थयुं बे. हवे अवेदक थको क्रोध वेदतो स्थिति अझाना त्रण जाग करे. एक अश्वकरणाझा, बीजो कीटीकरणाझा, त्रीजो वेदनोझा, तिहां प्रथमाकायें वर्चतो पुरुषवेद पण समयोन बे श्रावलि काले गुण संक्रमे, संक्रमावतो, संक्रमावतो, बेहेले समये सर्व संक्रमे; संक्रमावे. अहीं पुंवेद क्षीण थयो, अने अश्वकरणाद्धा पूर्ण थयो, ते पनी बीजा कीटीकरणाझायें प्रवेश करे, तिहां एकेका कषायनी अनंती कीटी एटले खंग करे, ते अनंती पण असत्कल्पनायें चार कल्पीयें, तो पण संजलणा के संज्वलना चार कषाय मध्ये जो क्रोधोदयें पमिवजतां शोल अने मानोदयें पडिवजतां बार तथा मायोदयें पविजतां श्राप अने खोजोदयें पडिवजतां चार कोटी होय, ते मांहेलुं एकेक कीटीनुं दल गुण संक्रमें, संक्रमावतो एक चरम कीटी रहे, तिहां संज्वलन क्रोधनो बंध, उदय श्रने उदीरणा विद थाय, परंतु सत्तायें बेहेलु 'बांधेलु बे श्रावली मात्र रह्यु तेने पण माननी प्रथम स्थिति कीटीदलमां क्रोधना दलने आकर्षीने तिहां गुण संक्रमे, संक्रमावे, चरम समयें सर्व संक्रमे, संक्रमावे, तेवारें तिहां क्रोध दीण थयो. ए रीतें संज्वलना माननी कोटी पण उपरली स्थितिमांदेथी नीची स्थितिमांहे उतारी वेदतो गुण संक्रमे, संक्रमावतो, संक्रमावतो, जेवारें चरम एटले बेहेली कीटी रहे, तेवारे तेने मायामांहे संक्रमावी खपावे. तेम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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