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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ६३३ कोइएक स्थडे संख्यात लागाधिक लेवा. कोइएक स्थडे असंख्याता नागाधिक लेवा. (२२) तेथकी चौरिंजिय पर्यातानो उत्कृष्टस्थितिबंध एकसो सागरोपमनो विशेषाधिक . ते थकी असन्नि के असन्निा पंचेंजिय पर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध संख्यात गुणो, जे नणी चौरिंजियथी एनो दश गुणो बंध कह्यो बे. तेमाटे (२३) ते थकी श्रसन्निश्रा पंचेंजिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक एटले संख्यात नाग अधिक बे, जे जणी हजार सागरोपमनी स्थितिना पण संख्याता पक्ष्योपम होय, ते पण वली पत्योपमने संख्यातमे जागें ऊणो जघन्यबंध . तो पण संख्यातमे नागें अधिक होय. (२४) ते थकी वली असन्निश्रा अपर्याप्तानो उत्कृष्टस्थितिबंध विशेषाधिक बे एटले संख्यात नागाधिक बे. (२५) ते थकी असन्निश्रा पंचेंजिय पर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात नागाधिक होय. इति समुच्चयार्थः ॥ ५० ॥ तो जइ जिठो बंधो, संखगुणो देस विरय दस्सिअरो॥ सम्म चन सन्नि चनरो, हि बंधाऽणु कम संखगुणा ॥ १ ॥ अर्थ-(२६) तो के० ते असन्नीथा पर्याप्ताना उत्कृष्ट स्थितिबंधथकी जश्के० यति एटले प्रमत्तसंयत एटले साधु स्वप्रायोग्य संक्लेशपरिणामें वर्त्ततो तेनो जिठोबंधो के० उत्कृष्ट स्थितिबंध संखगुणो के संख्यातगुणो जाणवो. जे जणी असन्नीश्राने ज्ञानावरणनो स्थितिबंध, चारसे अहावीश सागरोपम उपर सातीया चार नाग प्रमाण बे, श्रने प्रमत्तने अंतःकोडाकोमी सागरोपम प्रमाण जे ते माटे संख्यातगुणो अधिको स्थितिबंध होय. () ते साधुना उत्कृष्ट स्थितिबंधथकी देसविरय के० देशविर तिनो हस्स के इस्ख एटले जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणो जाणवो. (२) श्रो के तेथकी इतर एटले देशविरतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो जाणवो. देशविरति जीवने पर्याप्तावस्थायेंज बंध होय, पण अपर्याप्तावस्थायें देशविरतिपणुं न होय, तेमाटें अपर्याप्तावस्थानो बंध न कह्यो. (शए) तेथकी सम्म के अविरति सम्यक्दृष्टि पर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध, संख्यातगुणो. (३०) तेथकी अविरति अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणो. (३१) तेथकी अविरति अपर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो. (३५) तेथकी अविरति पर्याप्तानो उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणो, केम के सम्यक्दृष्टिपणुं अपर्याप्तावस्थायें पण होय डे, तेथी एना चन के चार बंध कह्या. तेमज सन्निचरो के सन्नीश्रा पंचेंजिय मिथ्यात्वीना पण चार बंध जाणवा, एटले तेथकी (३३) सन्नीश्रा पंचेंजिय पर्याप्ता मिथ्यात्वीनो जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणो. (३४) तेथकी सन्नीश्रा पंचेंजिय अपर्याप्तानो जघन्य स्थितिबंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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