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________________ शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ ज जीवने होय, तथा सगजरल के० श्रदारिकसप्तक एटले औदा रिकशरीर, ओदारिक - गोपांग, दारिकसंघातन, औदारिक चौदा रिकबंधन, औदारिकतैजसबंधन, औदारिकतैजसकार्मणबंधन ने श्रदारिककार्मणबंधन, ए सात प्रकृतिनी सत्ता पण सर्वदा पामियें, जे जणी मनुष्य, तिर्यंचने ए उदयें होय बे तथा देवता ने नारकीने बंधे होय, ते माटे चारे गतिमांहे एनी सत्ता, ध्रुव होय. तथा सासचऊ के० एक उश्वास, बीजुं उद्योत, त्रीजुं तप, चोथुं पराघात, ए उश्वासचतुष्कनी सत्ता, सर्वदा होय, ते जणी एने पण ध्रुवसत्ताकहीयें, एवं एकसो ने पञ्चीश प्रकृति थइ ॥ इति समुच्चयार्थः ॥८॥ खगइ तिरि डुगनी, धुवसत्ता ( ॥ थाधुवसत्ता निरूप्यते ॥ ) सम्म मीस मणु डुगं || विधिकार जिणार्ज, दारस गुच्चा धुवसत्ता ॥ ए ॥ - खग के शुभ विहायोगति ने अशुभ विहायोगति. ए बेहु प्रकृतिनी सत्ता, जीवने सर्वदा होय, तेथी ध्रुवसत्ता जाणवी. तिरिडुंग के० तिर्यंचनी गति अने तिर्यंचानुपूर्वी, ए बेहु नाम कर्मनी प्रकृतिनी सत्ता पण सर्व जीवने सर्वदा होय, जे जणी जीवने घणी स्थिति तिर्यंचगतिमध्यें होय बे तथा बीजी गतिमध्ये पण एनो बंध होय, ते जणी एनी ध्रुवसत्ता जाणवी. नियं के० निचैर्गोत्रनी ध्रुवसत्ता, तिर्यंचगतिमध्यें नियमा नीचैर्गोत्रनो उदय होय, तेथी ए एकसो ने त्रीश प्रकृतिनी सत्ता, मिथ्यात्वगुणस्थानकें वर्त्तता सर्व जीवने होय, जो पण अनंतानुबंधयानी सत्ताभूमि, सातमा गुणगा लगें बे, अने तेमध्यें पण विसंयोजना कीधे सत्ता ढले तो पण मिथ्यात्वें ध्रुवसत्ता जाणवी. ध्रुवसत्ता के० सत्ता एटले ध्रुवसत्ता प्रकृति एकसो ने त्रीश कही, शेष अहावीश प्रकृति रही, ते एथी विपरीत ध्रुवसत्तायें बे, ते कहे बे. जे प्रकृति उवेल्ये थके तथा बंधें मिथ्यात्व गुणठाणें पण कोई एक जीवने केवारें एक सत्तायें न लाने अने कोइ एकने लाने, एम जजनायें सत्ता होय, तेने अध्रुवसत्ता कहीयें. ते कहे बे. सम्म के० एक सम्यक्त्वमोहनीय, बीजी मीस के० मिश्रमोहनीय, ए बे प्रकृतिनी सत्ता, अनादि मिथ्यात्वी जीवने होय, तथा मिथ्यात्वगुणठाणे सम्यक्त्व वमी श्राव्य होय तेने मिथ्यात्वप्रत्ययें ए वे पुंज उवेली बबीश प्रकृति सत्कर्मा होय, तेने न होय, बीजा जीवने होय, तेथी अध्रुवसत्ता प्रकृति कहीयें. तथा मागं के मनुष्यगति ने मनुष्यानुपूर्वी, ए वे प्रकृति ते ते काय अने वानकायमध्ये जे घणो काल रहे, तो ते उवेले तेने सत्तायें न होय, बीजाने होय. एम ए प्रकृति पण अध्रुवसत्तावाली कहीयें. ७३ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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