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________________ ४४० बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. एम मनुष्य तथा तिर्यंचगतियें, उचें तथा गुणस्थानादिकविशेषे बंधस्वामित्व कही, ॥ हवे देवगतिने विषे उ तथा विशेषे बंधस्वामित्व कहे.॥ निरयव सुरा नवरं, उहे मि इगिदि तिग सहि ॥ कप्पउगे विअ एवं, जीणहीणो जोइ लवण वणे ॥ ११ ॥ अर्थ- निरयवसुरा के नरकगतिना बंधनी पेरें देवतानो पण बंध जाणवो. परंतु नवरं के एटलुं विशेष जे उहे के0 उचे एकसो चार प्रकृति अने मिले के मिथ्यात्वगुणगणे एकसो ने त्रण प्रकृति ते गिदितिगसहिया के० एकेंजियादिक त्रण प्रकृति सहित बांधे, एटले एकेंजियादिक त्रण प्रकृति नारकीथी अधिक बांधे. कप्पपुगेविथएवं के बे देवलोकें पण सुरघनी पेरें ये एकसो चार, मिथ्यात्वे एकसो त्रण, सास्वादने बन्नु, मिों सीत्तेर, अविरतियें बहोंतेर, अने जिणहीणो के० जिननाम विना शेष एकसो त्रण प्रकृति ऊंचे जोश के ज्योतिषी तथा नवण के० जुवनपतिने अने वणे के व्यंतर एत्रणेने घे एकसो त्रण, मिथ्यात्वें एकसो त्रण, सास्वादने बन्नु, मिों सीत्तेर, अने अविरतिये एकोतेरनो बंध जाणवो. ॥ इत्यदरार्थः ॥ ११॥ ४ जेम नरकगतिमध्ये बंधस्वामित्व कह्यु, तेमज देवगतिमध्ये पण जाणवू. केमके जेम नारकीने नरकगति तथा देवगतिमाहे उपज नथी, तेम देवताने पण चवीने ए बे गतिमाहे उपजवू नथी. तेथी तत्प्रायोग्य देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियहिक, ए आठ प्रकृति न बंधाय, अने विरति न होय, तेथी थाहारकहिक न बंधाय, सूक्ष्म एकेद्धियमध्ये तथा विकलेंजियमध्ये पण देवता न उपजे, तेथी सूदमत्रिक अने विकलत्रिक, ए प्रकृति पण न बंधाय. एम विंशोत्तरशत प्रकृतिमाहेथी ए शोल प्रकृति टले, तेवारें एकसो ने चार प्रकृति उधे बंधाय, तेमाथी मिथ्यात्व गुणगणे जिननाम न बंधाय. तेथी ते हीन करीयें, तेवारें एकसो त्रण प्रकृतिनो बंध मिथ्यात्वें होय, तेणे नारकीने शुं विशेष? जे नारकी एकेडियमध्ये न जाय अने देवता सूदम एकेदि. यमाहे न जाय पण बादर एकेंजिय मांहे जाय तेथी बादर एकेंजिय प्रायोग्य एकेंजियजाति, स्थावरनाम, श्रातपनाम, ए त्रण प्रकृति नारकीथी देवता अधिकी बांधे, तेथी उचे एकसो चार अने मिथ्यात्वे एकसो त्रण बंधाय. त्यां मिथ्यात्वप्रत्ययिकी एकेंजियजाति, थावर, आतप, नपुंसकवेद,मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडसंस्थान, बेवळं संघयण, ए सात प्रकृतिनो बंधविछेद होय तेवारें, सास्वादनगुणगणे शेष बन्न प्रकृतिनो बंध होय, ते मांहेथी अनंतानुबंध्यादिक प्रत्ययिकी अनंतानुबंध्यादिक ब्वीश प्रकृति विना शेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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