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________________ ७६० सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ प्रथम नपुंसकवेद खपावी अंतरमुहूर्त्त पछी स्त्रीवेद खपावे, तेनी सार्थेज पुरुषवेदनो बंध विछेदेखने पुरुषवेदबंध बेद्या पढी पुरुषवेद तथा हास्यादिक बनो समकालें क्षय करे. ते ज्यांगें दय न थाय, तिहॉलगें ए बे ठामें चारने बंधें वेदोदयरहित एकोदय वर्त्तताने अगीर प्रकृतिनुं सत्तास्थानक पामीयें, अने ते पुरुषवेद तथा हास्यादिक षट्क, एम सात प्रकृतिनो समकालें दय थये थके चार प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, एम पांच सत्तानां स्थानक, स्त्रीवेदें छाने नपुंसकवेदें श्रेणी मांडे तेने होय, अने जे पुरुषवेदें रूपकश्रेणी मांडे, तेने दास्यादिक बना क्षयनी साथै पुरुषवेदनो बंध टले ते जणी तेने चतुर्विधबंधकालें अगी धारनुं सत्तास्थानक न होय, पुरुषवेद विना हास्यादिक षट्क टालिये, तेवारें पांच प्रकृतिनुं सत्तास्थानक न होय, ते बे समयोन बे आव लिका लगें होय, तेवार पढी पुरुषवेदनो दय थये थके चारनुं सत्तास्थानक रहे, ते पण अंतरमुहूर्त्त पर्यंत रहे, तेथी एने पण अगीखारनुं सत्तास्थानक टाली बाकी पांच सत्तास्थानक होय. एम चतुर्विध बंधकने विषे २८ - २४-११-११-५-४ ए ब सत्तानां स्थानक होय तथा सेसेसुजाण पंचेवपत्ते पत्ते के० शेष त्रिविध, द्विविध अने एकविध, ए त्रण बंधस्थानकने विषे प्रत्येकें प्रत्यकें पांच पांच सत्तानां स्थानक होय. तिहां त्रणने बंधें हावीश, चोवीश, एकवीश, चार अने त्रण, ए पांच सत्तानां स्थानक होय. तिहां प्रथमनां त्रण सत्तास्थानक तो, उपशमश्रेणीयें होय, बाकी चार नेत्र, ए बे सत्तानां स्थानक रूपकश्रेणीयें होय, ते कही देखाडे बे. संज्वलना क्रोधनी अंतरकर प्रथम स्थिति एक श्रावलिका मात्र शेष बते तेनो बंध, उदय अने उदीरणा समकालें व्युच्छेद याय, तेवार पढी मानादिक त्रणनो बंध होय, तेवारें संज्वलना क्रोधनुं प्रथम स्थितिगत प्रावलिकामात्र छाने बे समयोन बे वलिबंध वस्ता मूकीने अन्य सर्व दयें गयुं, छाने ते क्रोधनी सत्ता पण बे समय ऊणी बे श्रावलिका मात्र का दय पामशे ते ज्यांगें दय न जाय त्यांलगें त्रिविध बंधें चार प्रकृतिनी सत्ता होय, छाने ते संज्वलनो क्रोध दयें गयें थके ऋण प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय, ते मुहूर्त्त लगें जावं. दवे द्विविधबंघें २८ - २४-२१-३-२ ए पांच सत्तास्थानक होय. ए मांलां त्रण तो पूर्वी पेरें उपशमश्रेणीयें जाववां ने बे सत्तास्थानक, रूपकश्रेणी यें जावव. ते पूर्वोक्त क्रोधनी पेरें मानने पण यावलिकामात्र प्रथम स्थितिगत करे ते ज्वलना मानना पण बंध, उदय अने उदीरणा सार्थेज टले, तेवारें द्विविध बंध होय. तिहां बे समयोन बे आवलिका लगें संज्वलमाननी सत्ता होय, तेवारें त्रण प्रकृतिनुं सत्तास्थानक जाणवुं, अने पढी मानने दयें अंतरमुहूर्त्त पर्यंत बे प्रकृतिनुं Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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