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________________ ७२६ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ । विषे चौद पूर्व बे. ते माहेबुं बीजु श्रग्रायणीनामो पूर्व, ते मध्ये चौद वस्तुपरिमाण बे, ते मांहेला पांचमा वस्तुपरिमाणमां वीश पाहुमा बे. पाहुडा एटले अधिकार विशेष जाणवो. ते वीश पाहुमामांदेलो चोथो कर्मप्रकृतिनामा जे पाहुडो , ते चोवीश अनुयोगद्यारसहित बे, ते पाहुडा थकी बंधोदयसचापणे परणमी जे कर्मनी प्रकृति, तेनां स्थानकनो संवेध एटले विचार ते संदेप थकी हुँ कहीश, एटले ए शास्त्रपरंपरायें सर्वज्ञ नाषित बे, ते जणी सहुने प्रमाण होय ___ अथवा बीजे अर्थे सिद्ध के० स्वसमय प्रसिक जे पद के चौद जीवस्थानक, चौद गुणगणां इत्यादिक पद ते श्राश्रयी बंध, उदय अने सत्तायें प्रकृतिस्थानक सन्नाव आश्री संदेप बोलीश, तथा संवेध एटले विचार अथवा संवेध एटवे परस्परें बंध, उदय, सत्तानुं जोडवू, दृष्टिवाद के बादशांगीतुं रहस्य अथवा दृष्टिवादनी अपेक्षायें ए सत्तरी प्रकरण बिंपुथा समान , ते हे शिष्य ! तुं सांजल. - तिहां आत्मप्रदेशने कर्म परमाणुनी साथें अग्नि लोहनी पेरें सर्वांशे मल, तेने बंध कहीये. ते कर्म परमाणुना शुजाशुन रसनुं नोगवq तेने उदय कहीयें. तेहवा बांध्या तथा संक्रम्या जे परमाणु, ते जिहां लगें निर्जरे नहीं, तिहां लगें तेनो जे सन्नाव, तेने सत्ता कहीयें, अने प्रकृति स्थानक एटले समुदाय, जेम के बे,त्रण,चार, पांच इत्यादिक प्रकृतिना थोकमा ते ज्यां लगें जेटला होय, त्यां लगें तेटला प्रकृतिनां स्थानक जाणवां, ए सर्वनो विचार, तेनो संक्षेप एटले थोडे श्रदरें घणो अर्थ समजाय तेवी रीतें कहीशु, पण ते संक्षेप केवो ? तोके-महब के० घणा अर्थ बेजेमां एवो बे. अहींयां बंधोदय सत्ता प्रकृतिस्थान कहेगुंते अनिधेय जाणवू, अने अनिधायक शास्त्र तेने वाच्यवाचक नाव, ए संबंध जाणवो. तथा एग्रंथें अधिकारी कर्मनी बंधोदय प्रकृति स्थाननी विवेचनाथी महा अधिकारी मोक्षार्थी जीव जाणवा, अने ते कर्म विचारनुं जे समजवु ते अवांतर प्रयोजन जाणवू तथा महाप्रयोजन अथवा परंपराप्रयोजन तो मोक्ष जाणवू. एम अनिधेय, संबंध, अधिकारी श्रने प्रयोजन, ए चार वानां ग्रंथने आरंनें कहेवां ॥१॥ . कर बंधंतो वेअर, कर कई वा संत पयडि गणाणि ॥ मूलुत्तर पगईसु,नंग विगप्पा मुणेप्रवा॥२॥ अर्थ-एq आचार्ये कहे थके, हवे शिष्य पूजे जे के हे नगवन् ! कश्बंधतोवेश के० केटली प्रकृति बांधतो थको जीव केटली प्रकृति वेदें, एटले अनुनवे, वा के अथवा कश्कर के० केटली केटखी प्रकृति बांधतां तथा केटली प्रकृति वेदता थकां संतपय मिगणाणि के केटली केटली प्रकृतिनुं सत्तास्थानक होय ? एवो शिष्ये प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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