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षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ हो सान्निपातिक नाव जाणवो. हवे ते विवरीने कहेले. सम्मंचरणपढमनावे के अनंतानुबंधीया चार अने दर्शनमोहनीय त्रण, ए सात प्रकृतिनो रस तथा प्रदेश न होय ते औपशमिक कहीये. तेथकी प्रगटीजे तस्वरुचि, ते औपशमिकसम्यक्त्व कहीये. अने शेष पच्चीश मोहप्रकृतिनो उपशम थयाश्री जे स्थिरतारूप चारित्र प्रगट थाय, तेने बापशमिक चारित्र कहीये. ए प्रथम औपशमिक नावना बे नेद कह्या. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६ ॥
बीए केवल जुअलं, सम्मं दाणा लछि पण चरणं ॥
तइए सेसुव ऊँगा, पणलही सम्म विरइ उगं ॥ ६७ ॥ अर्थ- बीए के हवे बीजो दायिकलाव तेना नव नेद कहेजे. केवलजुश्रलं के एक केवलज्ञानावरणीयना यथी उपनुं जे केवलज्ञान ते प्रथम नेद, बीजं केवलदर्शनावरणीयना यथी उपनुं जे केवलदर्शन, ते बीजो नेद, ए केवल युगल दायिकनावे जाणवो. जे नणी केवलज्ञानावरणीय अने केवलदर्शनावरणीय, ए सर्वघातिनी प्रकृति तेनो सर्वथा नाश थवाथी श्रात्मानो सर्व गुण प्रगट थाय. ते गुण वली केबारें अवराय नहीं, ते नणी ए बे दायिकना जाणवा, तथा अनंतानुबंधीया कषाय चार अने दर्शनमोहनीय त्रण, एवं सात प्रकृति दय थ, तेथी जे श्रात्माने तत्वरुचि गुण प्रगट थाय, ते त्रीजो दायिक सम्मं के सम्यक्त्व नामे नेद जाणवो. ए कर्मक्ष्यथी होय. तथा दाणाइल छिपण के दानांतरायादिक पांच प्रकृतिना दयथी उपनी जे पांच दायिकलब्धि एटले एक दानलब्धि, बीजी लाजलब्धि, त्रीजी नोगलब्धि, चोथी उपनोगलब्धि, पांचमी वीर्यलब्धि, जेणे करी दानादिक विषयिणी श्छा नथी ते दानादिक पांच सब्धि दायिकनावे जाणवी. ए पांच नेद साथे पूर्वला त्रण नेद मेलवतां श्राप नेद थया. तथा सर्व जीवने अजयदान देवा समर्थ थया अने पच्चीश मोहनीयनी प्रकृतिना यथी प्रगट थयो जे चरणं के चारित्रगुण तेने दायिकचारित्र कहीये. एवं नव जेद, दायिकनावना थया.
तइएसेसुवढंगा के त्रीजे दायोपशमिक जावें शेष एटले एक केवलज्ञान अने बीजुं केवलदर्शन, ए बे विना शेष दश उपयोग तथा पणलकि के० दानादिक पांच लब्धि बद्मस्थनी लेवी, एवं पंदर तथा सम्म के दायोपशमिक सम्यक्त्व अने विर. श्गं के विरतिछिक, एटले सर्व विरति, अने देश विरति, एवं अढार नेद दायोपशमिक जावना जाणवा. तिहां मतिझानावरणीय अने श्रुतज्ञानावरणीय, चकुदर्शनावरणीय, अचकुदर्शनावरणीय, ए चारनो उदय, बारमा गुणगणा लगें
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