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________________ इंडियपराजयशतक. व्याख्या - जइवि के० यद्यपि परिचत्तसंगो के समस्त प्रकारे बाह्य कुटुंबादिकना संगने परित्याग को वे जेणे अने तव के तपेकरी तांगो के डुबलुं अंग जेणे कस्बे; तहावी के० तोपण मिहिलासंसग्गीए के० महिला जे स्त्री, तेना संसर्गे परिans के० संसारमांदे पडे. कोनी पेरे ? तो के-कोसा के० वेश्या, तेहना भुवननेविषे निवास करनार एवा जे सिंहगुफावासी मुनिवर तेनी पेठे जाणीलें ॥४४॥ सबगंथ के सर्व ग्रंथथी विमुक्को के० विमुक्त, अर्थात् संसारना सर्व बंधनथी रहित एवो ने जे चित्तोछा के० चित्तनेविषे ऊपसंति के० प्रशांतता पाम्यो अने जं के० जे पावश्मुत्तिसु के० मोदनुं सुख पामे तं के० ते सुख चक्कवहीवि के० चक्रवर्त्ति पण न लहइ के० नयी लेतो. ॥ ४५ ॥ " १० 'खेलंमि पडियमप्पं जह न तर मचिच्याविमोएन ॥ तद विसयखेलपडिप्रं न तरइ अप्पंपि कामंधी ॥४६॥ जं लदइ वीराज सुकं तं मुइ सुच्चिच् न अन्नो ॥ न विगत्ता सूच्परक जाणइ सुरलोइ सुरकं ॥४७॥ व्याख्या - जह के० जेम खेलंमि के श्लेष्मने विषे परि के० परेली एवी जे मविवि के मक्षिका पण अप्पं के० पोताने न मोएकतर के० मूकाववाने समर्थ यती नथी; तह के तेम विसयखेल पनि के० विषयरूप श्लेष्ममांहे पड्यो एवो कामंधो के० कामे करी अंध थलो पुरुष पंपि के० पोताने पण नतरइ के० न मूकावी शके. ॥ ४७ ॥ जं के० जे सुखं के० सुखने वीराज के० वीतराग लहर के लहे, तं ते सुखने श्री वीतरागज जाणे. पण न अन्नो के अन्य कोइ जाणे नहीं. जेम विगत्ता के गर्ता एटले खानामा रहेला कर्द्दमने विषे मग्न थलो एवो जे सूझरऊ के० सूर - तुंग ते सुरलोइथं सुरकं के० स्वर्गलोकनां सुखने न जाएइ के० जाणे नहीं. वि जीवाणं विसएसु उदासवेसु पडिबंधो ॥ तं नजइ गुरुच्याएवि प्रलंघणिको महामोदो ॥ ४८ ॥ जे कामंधा जीवा रमंति विसएस ते विगयसंका ॥ जे पुण जिणवयणरया ते जीरु तेसु विरमंति ॥ ४९ ॥ व्याख्या - जं के० जे कारण माटे झवि के० हजी सुधीपण, जीवाणं के० जीवोने विससुहास वेसु के दुःखनेज श्राश्रव एटले श्रवनारा जे विषय तेने विषे प्रति - बंध बे. तं के० ते कारण माटे गुरुश्राणवि के महोटाने पण महामोहो के० महामोह जे बे ते लंघणो के अलंघनीय बे एवं, नझइ के० जाणिए बीए. ॥ ५८ ॥ जे के० जे कामंधा जीवा के० कामे करी अंध थपला जीवो, ते विगयसंका के० शंकारहित होता था विसएस के० विषयोने विषे रमंती के० रमे बे. जे के० जे पुण के० जं Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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