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जिनका कि ' व्याख्यान' उन्होंने अपने दोनों शिष्योंके लिए किया । अपनी इस बातके समर्थन में इन्ही गाथाओंमेंसे मैं कुछ ऐसी गाथाओंको प्रमाण रूपसे उपस्थित करता हूं कि जिनका उल्लेख मात्र ही पट्खण्डागमकारने किया है, किन्तु उनका अर्थ-बोध सुगम होनेसे उनपर कोई सूत्ररचना पृथग् रूपसे नहीं की है । अर्थात् उन गाथाओंको ही अपने ग्रन्थका अंग बना लिया गया है । इसके लिए देखिए प्रकृतिअनुयोगद्वार के भीतर आई हुई अवधिज्ञानका वर्णन करनेवाली १५ गाथाएँ | ( प्रस्तुत ग्रन्थके पृ. ७०३ से ७०७ तक । )
प्रस्तावना
परिशिष्ट में गाथासूत्र - पाठ दिया हुआ है । उनमें से प्रारम्भकी तीन गाथाओं पर ५२ सूत्र रचे गये हैं । ( देखो पृ. ६२१ से ६२४ तक ) उनसे आगेकी तीन गाथाओंपर ५६ सूत्र रचे गये हैं । (देखो पृ. ६२४ से ६२७ तक ) उनसें आगेकी ' सम्मत्तप्पत्तीए ' इत्यादि दो गाथाओं पर २२ सूत्र रचे गये हैं । ( देखो पृ. ६२७ से ६२९ तक । )
यहां यह बात ध्यान देनेकी है कि इन गाथाओंके आधारपर रचे गये सूत्रोंको स्वयं धवलाकारने चूर्णिसूत्र कहा है । यथा
( १ ) ' अट्ठामिणि -' इत्यादि दूसरी सूत्रगाथाकी टीका करते हुए शंका उठाई गई है। कि ' कथं सव्वमिदं णव्वदे ?' अर्थात् यह सब किस प्रमाणसे जाना जाता है ? तो इसके समाधान में कहा गया है कि ' उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो', अर्थात् आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है । ( देखो धवला पु. १२, पृ. ४२-४३ )
( २ ) ' तिय' इदि वुत्ते ओहिणाणावरणीय
• समाणाणं गहणं । कधं समाणत्तं वदे ? उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो । ( धवला पु. १२, पृ. ४३ )
इस उद्धरणमें भी यही शंका उठाई गई है कि ' तिय ' पदसे अवधिज्ञानावरणीय आदि इन्हीं तीन प्रकृतियोंका कैसे ग्रहण किया गया है यह कैसे जाना ? उत्तर दिया गया - कि आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे जाना ।
उपर्युक्त दो उद्धरणोंके प्रकाशमें यह बात असंदिग्धरूप से सिद्ध होती है कि उन गाथाओं के अर्थ स्पष्टीकरणार्थ जो गद्यसूत्रोंकी रचना की गई है, उन्हें धवलाकार 'चूर्णिसूत्र' कर रहे है । ठीक वैसे ही, जैसे कि कसायपाहुडकी गाथाओं के अर्थ स्पष्टीकरणार्थ यतिवृषभाचार्यद्वारा रचे गये सूत्रोंको उन्हींने [ वीरसेनाचार्यने ] चूर्णिसूत्र कहा है ।
इसके अतिरिक्त जैसे यतिवृषभाचार्य ने कसायपाहुडकी गाथाओंकी व्याख्या करते हुए ' विहासा, वेदादिति विहासा' [ कसायपाहुड सुत्त पृ. ७६४-७६५ ] इत्यादि कह कर पुनः गाथाके अर्थको स्पष्ट करनेवाले चूर्णिसूत्रोंकी रचना की है, ठीक उसी प्रकारसे षट्खण्डागमके कितने ही स्थलोंपर हमें यही बात दृष्टिगोचर होती है, जिससे हमारे उक्त कथन की और भी पुष्टि
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