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१,९-२, ८०] जीवट्ठाण-चूलियाए ट्ठाणसमुक्त्तिणं
[ २८९ तिरिक्खगदिं एइंदिय-बादर-पज्जत्त-आदाउज्जोवाणमेक्कदरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स ॥ ७७॥
वह छब्बीसप्रकृतिक बन्धस्थान एकेन्द्रिय जाति, बादर, पर्याप्त तथा आतप और उद्योत इन दोनों से किसी एकसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ७७ ॥
तत्थ इमं पढमपणुवीसाए हाणं-तिरिक्खगदी एइंदियजादी ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं वण्ण-गंध-रस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुअलहुअउपघाद-परघाद-उस्सास-थावरं बादर-सुहुमाणमेक्कदरं पज्जत्तं पत्तेग-साधारणसरीराणमेक्कदरं थिराथिराणमेक्कदरं सुहासुहाणमेक्कदरं दुहव-अणादेज्जं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं एदासिं पढमपणुवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ७८॥
नामकर्मके तिर्यग्गति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह प्रथम पच्चीसप्रकृतिक बन्धस्थान है- तिर्यग्गति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, बादर और सूक्ष्म इन दोनोंमेंसे कोई एक, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर इन दोनोमेंसे कोई एक, स्थिर, और अस्थिर इन दोनोमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति इन दोनोमेंसे कोई एक तथा निर्माण नामकर्म; इन प्रथम पच्चीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ।। ७८ ॥
यहां बादर-सूक्ष्म, प्रत्येक साधारणशरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यश:कीर्तिअयशःकीर्ति; इन विरुद्ध प्रकृतियोंके विकल्पसे बत्तीस (२x२x२x२x२=३२ ) भंग होते हैं ।
तिरिक्खगदि एइंदिय-पज्जत्त-चादर-सुहुमाणमेक्कदरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स ॥ ७९ ॥
वह प्रथम पच्चीसप्रकृतिक बन्धस्थान एकेन्द्रिय जाति, पर्याप्त तथा बादर और सूक्ष्म इन दोनों से किसी एकसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ।। ७९ ।।
यह बन्धस्थान आगेके सासादन आदि गुणस्थानोंमें नहीं पाया जाता है। कारण यह कि उपरिम गुणस्थानवी जीवोंके एकेन्द्रिय जाति, बादर और सूक्ष्म इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है।
तत्थ इमं विदियपणुवीसाए ठाणं-तिरिक्खगदी वेइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियपंचिंदिय चदुण्हं जादीणमेकदरं ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं ओरालियसरीरअंगोवंगं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं वण्ण-गंध-रस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवी अगुरुअलहुअ-उवघाद-तस-बादर-अपज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुभ-दुहव-अणादेज्ज-अजसकित्तिणिमिणं, एदासिं विदियपणुवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ८० ॥
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