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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, १, २
कहे जाते हैं । उक्त ईर्यापथकर्मद्रव्यबन्धक दो प्रकारके हैं- छद्मस्थ और केवली । इनमें छद्मस्थ भी दो प्रकारके हैं उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय । साम्परायिककर्मद्रव्यबन्धक दो प्रकारके हैंसूक्ष्मसाम्परायिक और बादरसाम्परायिक |
भावबन्धक दो प्रकारके हैं- आगमंभावबन्धक और नोआगमभावबन्धक । इनमें जो जीव बन्धप्राभृतके ज्ञाता होकर वर्तमानमें तद्विषयक उपयोगसे भी सहित हैं वे आगमभावबन्धक कहलाते हैं । क्रोधादि कषायोंको जो आत्मसात् किया करते हैं वे नोआगमभावबन्धक कहे जाते हैं । इन सब बन्धकोंमें यहां कर्मबन्धक प्रकृत हैं ।
अब चूंकि चौदह आगे सूत्र द्वारा उन चौदह
मार्गणास्थान इन बन्धकोंकी प्ररूपणाके आधारभूत हैं, अत एव मार्गणाओंका निर्देश किया जाता है
गइ इंदिए का सण आहार चेदि ॥ २ ॥
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार; ये चौदह मार्गणास्थान हैं ॥ २ ॥ ( देखिये सत्प्ररूपणा सूत्र ४ ) गदियानुवादे णिरयगदीए णेरइया बंधा ॥ ३ ॥
गतिमार्गणा के अनुसार नरकगतिमें नारकी जीव बन्धक हैं ॥ ३ ॥
जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविए सम्मत
सूत्र' बंधा ' ऐसा कहनेपर उसके द्वारा बन्धकोंको ग्रहण करना चाहिये । कारण यह कि कर्ता कारकमें ' बन्ध' और ' बन्धक ' ये दोनों पद सिद्ध होते हैं ।
मणुसा बंधा वि अत्थि अबंधावि
तिरिक्खा बंधा ॥ ४ ॥ देवा बंधा ॥ ५ ॥ अस्थि ।। ६ ।।
तिच बन्धक हैं ॥ ४ ॥ देव बन्धक हैं ॥ ५ ॥ मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं ॥ ६ ॥
मिथ्यात्व, असंयम कषाय और योग ये कर्मबन्धके कारण हैं । इन सबका चूंकि अयोगिकेवल गुणस्थान में अभाव हो चुका है, अत एव मनुष्योंमें अयोगी जिन अबन्धक हैं। शेष सब मनुष्य बन्धक हैं, क्योंकि, वे उन मिथ्यात्वादि बन्धके कारणोंसे संयुक्त पाये जाते हैं ।
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सिद्धा अबंधा ॥ ७ ॥
सिद्ध अबन्धक हैं ॥ ७ ॥
कारण यह कि वे बन्धके कारणभूत मिथ्यात्वादिसे रहित होकर उनके विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय और अयोगरूप मोक्षके कारणोंसे सहित हैं ।
उपर्युक्त बन्धके चार कारणोंमेंसे मिथ्यात्वका उदय मिथ्यात्व नपुंसकवेद, नारकायु,
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