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वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे पद मिमांसा
४, २, ४, १४
तत्थ य संसरमाणस्स बहुवा पज्जत्तभवा (थोवा अपज्जताभवा)॥८॥ वहां परिभ्रमण करनेवाले जीवके पर्याप्त भव बहुत और अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं ॥८॥
अभिप्राय यह है कि बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें परिभ्रमण करते हुए जिसने पर्याप्त भव थोडे तथा अपर्याप्त भव बहुत ग्रहण किये हैं। भवोंकी यह बहुता और अल्पता क्षपितकांशिक, क्षपितघोलमान और गुणितघोलमान जीवोंके भवोंकी अपेक्षा समझना चाहिये ।
दीहाओ पज्जत्तद्धाओ रहस्साओ अपज्जत्तद्धाओ ॥ ९ ॥ पर्याप्तकाल दीर्घ और अपर्याप्तकाल थोडे होते हैं ॥ ९॥
अभिप्राय यह है कि पर्याप्तोंमें उत्पन्न होता हुआ जो दीघ आयुवाले पर्याप्त जीवोंमें ही उत्पन्न हुआ है तथा उनमें भी सर्वलघु कालमें जिसने पर्याप्तियोंको पूर्ण करके पर्याप्तकालको क्षपितकमांशिक आदिकी अपेक्षा दी और अपर्याप्तकालको अल्प किया है ।
जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा तप्पाओगेण जहण्णएण जोगेण बंधदि ॥१०॥
जब जब वह आयुको बांचता है तब तब आयुवन्धक योग्य जघन्य परिणामयोगसे ही आयुको बांधता रहा है ॥ १० ॥
उवरिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे हेडिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स जहण्णपदे।
उपरिम स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद होता है और अधस्तन स्थितियोंके निषेकका जघन्यपद होता है ॥ ११ ॥
सूत्रमें प्रयुक्त ‘उक्कस्सपदे' और 'जघण्णपदे' इन दोनों पदोंको प्रथमान्त समझना चाहिये, न कि सप्तम्यन्त । अभिप्राय इसका यह है कि प्रकृत जीवका उत्कर्षण द्रव्य क्षपितकर्माशिक, क्षपितघोलमान और गुणितघोलमानकी अपेक्षा बहुत तथा अपकर्षण द्रव्य इन्हीं तीनोंकी अपेक्षा अल्प रहता है।
बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥ १२ ॥ बहुत बहुत बार जो उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥
चूंकि उत्कृष्ट योगस्थानोंके द्वारा बहुत कर्मप्रदेशोंका आगमन होता है, अतः सूत्रमें 'बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है ऐसा कहा गया है ।
बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ १३ ॥ बहुत बहुत बार जो बहुत संक्लेशरूप परिणामवाला होता है ।। १३ ॥
बहुत संक्लेश परिणामोंसे चूंकि बहुत द्रव्यका उत्कर्पण और उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध हुआ करता है, अतः सूत्रमें वैसा निर्दिष्ट किया गया है ।
एवं संसरिदृण वादरतसपज्जत्तएसुववण्णो ॥ १४ ॥
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