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६४२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[ ४, २, ८, ७ क्षेत्रादि बाह्य वस्तुओं व उनके ग्रहणके कारणभूत आत्मपरिणाम स्वरूप परिग्रह प्रत्ययसे ज्ञानावरणीयवेदना होती है ॥ ६॥
रादिभोयणपच्चए ॥७॥ रात्रि भोजन व तद्विषयक परिणामरूप प्रत्ययसे ज्ञानावरणीयवेदना होती है ॥ ७ ॥ एवं कोह-माण-माया-लोह-राग-दोस-मोह-पेम्मपच्चए ॥८॥
इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम प्रत्ययसे ज्ञानावरणीयवेदना होती है ॥ ८॥
___ हृदय दाहादिका कारणभूत जो जीवका परिणाम होता है उसका नाम क्रोध है । ज्ञान व ऐश्वर्य आदिके निमित्तसे जो उद्धततारूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे मान कहा जाता है । अपने अन्तःकरणके भावको आच्छादित करनेके लिये जो आचरण किया जाता है उसे माया समझना चाहिये । बाह्य वस्तुओंके विषयमें जो ममत्त्व-बुद्धि हुआ करती है उसे लोभ कहते हैं। माया, लोभ, तीनों वेद, हास्य और रति; ये सब रागके अन्तर्गत तथा क्रोध, मान, अरति, शोक, जुगुप्सा और भय; ये सब द्वेषके अन्तर्गत माने गये हैं। क्रोधादि चार कषायों, हास्यादि नौ नोकषायों और मिथ्यात्वके समूहको मोह जानना चाहिये । प्रीतिरूप परिणामका नाम प्रेम है । इन पृथक् पृथक् कारणोंके द्वारा ज्ञानावरणीयवेदना उत्पन्न होती है। यद्यपि उपर्युक्त प्रत्यय परस्पर एक दूसरेमें प्रविष्ट हैं, फिर भी उनमें कथंचित् भेद भी जानना चाहिये ।
णिदाणपच्चए ॥९॥ निदान प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ९ ॥
चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण और प्रति नारायण आदि पदोंका जो परभवमें अभिलाषा की जाती है उसे निदान कहा जाता है ।
__ अब्भक्खाण-कलह-पेसुण्ण-अरइ-उवहि-णियदि-माण-माय-मोस-मिच्छणाण-मिच्छदंसण-पओअपच्चए ॥१०॥
अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृत्ति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग; इन प्रत्ययोंसे ज्ञानावरणीयवेदना होती है ।
कषायके वशीभूत होकर जो दोष दूसरेमें नहीं है उनको प्रगट करना, इसका नाम अभ्याख्यान है । कषायके वश तलवार, लाठी, अथवा वचन आदिके द्वारा दूसरेको कष्ट पहुचाना, इसका नाम कलह है । क्रोधादिके वश होकर दूसरेके दोषोकों प्रगट करना पैशून्य कहलाता है । पुत्र व कलत्र आदिमें अनुराग रखना रति और इससे विपरीत अरति कही जाती है। जो बाह्य पदार्थ क्रोधादि कषायको उत्पन्न करनेवाले होते है उनका नाम उपधि है । निकृतिसे अभिप्राय छल-कपटका है। मान शब्दसे यहां मापने व तोलनेके उपकरणों (प्रस्थ, एवं सेर व आध सेर आदि) को ग्रहण
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