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६९६ ] छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
[५, ५, १ ५. पयडिअणियोगदारं पयडि त्ति तत्थ इमाणि पयडीए सोलस अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति ॥१॥ पयडिणिक्खेवे पयडिणयविभासणदाए पयडिणामविहाणे पयडिदव्वविहाणे पयडिखेत्तविहाणे पयडिकालविहाणे पयडिभावविहाणे पयडिपञ्चयविहाणे पयडिसामित्तविहाणे पयडिपयडिविहाणे पयडिगदिविहाणे पयडिअंतरविहाणे पयडिसण्णियासविहाणे पयडिपरिमाणविहाणे पयडिभागाभागविहाणे पयडिअप्पाबहुए त्ति ॥ २॥
.. अब यहां महाकर्म प्रकृति प्राभृतके अन्तर्गत कृति आदि चौवीस अनुयोगद्वारोंमें पांचवें प्रकृति अनुद्वारकी प्ररूपणा की जाती है । उसमें ये सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं ॥ १ ॥ प्रकृतिनिक्षेप, प्रकृतिनयविभाषणता, प्रकृतिनामविधान, प्रकृतिद्रव्यविधान, प्रकृतिक्षेत्रविधान, प्रकृतिकालविधान, प्रकृतिभावविधान, प्रकृतिप्रत्ययविधान, प्रकृतिस्वामित्वविधान, प्रकृति-प्रकृतिविधान, प्रकृतिगतिविधान, प्रकृति-अन्तरविधान, प्रकृतिसंनिकर्षविधान, प्रकृतिपरिमाणविधान, प्रकृतिभागाभागविधान और प्रकृति-अल्पबहुत्त्व ॥ २ ॥
पयडिणिक्खेवे त्ति ॥३॥ चउविहो पयडिणिक्खेवो- णामपयडी दुवणपयडी दव्वपयडी भावपयडी चेदि ॥४॥
उक्त सोलह अनुयोगद्वारोंमें प्रकृति निक्षेपका अधिकार है ॥ ३ ॥ वह प्रकृतिनिक्षेप चार प्रकारका है-- नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ॥ ४ ॥
पयडिणयविभासणदाए को णओ काओ पयडीओ इच्छदि ? ॥५॥ प्रकृतिनयविभाषणताकी अपेक्षा कौन नय किन प्रकृतियोंको स्वीकार करता है ? ॥५॥
णेगम-चवहार-संगहा सव्वाओ॥६॥ उजुसुदो दुवणपयडिं णेच्छदि ॥७॥ सद्दणओ णामपयडिं भावपयडिं च णेच्छदि ॥ ८ ॥
नैगम व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सब प्रकृतयोंको स्वीकार करते हैं ॥ ६ ॥ ऋजुसूत्र नय स्थापनाप्रकृतिको नहीं स्वीकार करता ॥ ७ ॥ तथा शब्द नय नामप्रकृति और भावप्रकृति इन दोको ही स्वीकार करता है ॥ ८ ॥
जा सा णामपयडी णाम सा जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजीवाणं वा, जीवस्स च, अजीवस्स च, जीवस्स च, अजीवाणं च, जीवाणं च, अजीवस्स च, जीवाणं च, अजीवाणं च जस्स णामं कीरदि पयडि त्ति सा सव्वा णामपयडी णाम ॥९॥
__इनमें जो नामप्रकृति है उसका स्वरूप इस प्रकार है--- एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और नाना अजीव, नाना जीव और एक अजीव तथा नाना जीव और नाना अजीव इस प्रकार इनके प्राभृतसे जिसका 'प्रकृति' ऐसा नाम करते हैं वह सब नामप्रकृति है ॥ ९॥
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