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५, ४, २४१] बंधणाणियोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा अप्पाबहुअपरूवणा
अणाहारा कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ २३५ ॥ अनाहारक जीवोंकी प्ररूपणा कार्मणकाययोगियोंके समान है ॥ २३५ ॥
४. सरीरपरूवणा सरीरपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ अणियोगद्दाराणि- णामणिरूत्ती पदेसपमाणाणुगमो णिसेयपरूवणा गुणगारोपदमीमांसा अप्पाबहुए त्ति ॥ २३६ ॥
शरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा वहां ये छह अनुयोगद्वार हैं- नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निषेक प्ररूपणा, गुणकार, पदमीमांसा और अल्पबहुत्त्व ॥ २३६ ॥
णामणिरुत्तीए उरालमिदि ओरालियं ॥ २३७ ॥ नामनिरुक्तिकी अपेक्षा जो अवगाहनासे उराल है वही औदारिक शरीर है ॥ २३७ ॥
'उदारमेव औदारिकम्' इस निरुक्तिके अनुसार जो शरीर उदार- अन्य शरीरोंकी अपेक्षा महती अवगाहनावाला है उसे औदारिक शरीर कहा गया है। इसका कारण यह है कि महामत्स्यके औदारिक शरीरकी जो पांच सौ योजन विस्तृत और एक हजार योजन आयत अवगाहना पायी जाती है उसकी अपेक्षा अन्य किसी भी शरीरकी महती अवगाहना नहीं पायी जाती।
विविहइड्ढिगुणजुत्तमिदि वेउव्वियं ॥ २३८ ॥ विविध गुण-ऋद्धियोंसे युक्त होनेके कारण दूसरा शरीर वैक्रियिक कहा गया है ॥२३८॥ णिवुणाणं वा णिण्णाणं वा सुहुमाणं वा आहारदव्वाणं सुहुमदरमिदि आहारयं ॥
निपुण (मृदु) स्निग्ध और सूक्ष्म आहारद्रव्योंके मध्यमें आहारकशरीर चूंकि सूक्ष्मतर स्कन्धको आहरण (ग्रहण) करता हैं, अत एव उसे 'आहारक' इस सार्थक नामसे कहा गया है ॥ २३९ ॥
तेयप्पहगुणजुत्तमिदि तेजइयं ॥ २४० ॥
तेज (शरीरस्वरूप पुद्गलस्कन्धका वर्ण) और प्रभा (शरीरसे निकलनेवाली कान्ति) रूप गुणसे युक्त होनेके कारण चतुर्थ शरीरको ‘तैजस' इस नामसे कहा गया है ॥ २४० ॥
सव्वकम्माणं परूहणुप्पादयं सुह-दुक्खाणं बीजमिदि कम्मइयं ॥ २४१ ॥
'कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन् इति कार्मणम्' इस निरुक्तिके अनुसार जो शरीर सब कर्मोंका आधार होकर उनका उत्पादक तथा सुख-दुखःका बीज- कारण है उसे 'तेजस' इस नामसे कहा गया है ॥ २४१ ।।
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