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छक्खंडागम गुणश्रेणीनिर्जरा- अपूर्वकरणादि परिणामोंका निमित्त पाकर प्रतिसमय उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित श्रेणीके
रूपसे जो कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होती है, उसे गुणश्रेणीनिर्जरा कहते हैं। गुणहानि-विवक्षित निषेकके परमाणु अवस्थित हानिसे हीन होते हुए जितनी दूर जाकर आधे रह जावें, उतने
अध्वान ( मार्ग ) को गुणहानि कहते हैं। चतुःस्थानबन्ध- कर्मों के लता, दारु, अस्थि और शैल रूप चतु:स्थानीय अनुभागके बन्धको चतुःस्थानबन्ध
कहते हैं। पुण्यप्रकृतियोंके गुड, खांड, शर्करा और अमृतरूप; तथा पापप्रकृतियोंके नीम, कांजी,
विष और हलाहलरूप अनुभागबन्धको भी चतु:स्थानबन्ध कहते हैं। चिन्ता- पूर्वमें अवधारित अर्थके स्मरण करनेको चिन्ता कहते हैं । यह स्मृतिका पर्यायवाची नाम है। चूलिका-- अनुयोगद्वारोंमें कहनेसे रह गये तत्सम्बद्ध अर्थके वर्णन करनेवाले अधिकारको चूलिका कहते हैं । छविच्छेद- छवि नाम शरीरका है, उसका नख व शस्त्र आदिसे छेदन-भेदन करनेको छविच्छेद कहते हैं । जगच्छेणी- सात राजु लम्बी आकाशकी एकप्रदेशपंक्तिको जगच्छ्रेणी कहते हैं । जगत्प्रतर- जगच्छ्रेणीके वर्गको जगत्प्रतर कहते हैं। दूसरे शब्दोंमें सात राजु लम्बी, सात राजु चौड़ी और
एक प्रदेश प्रमाण मोटी आकाश-प्रदेश-पंक्तियों के समुदायको जगत्प्रतर कहते हैं। जित (श्रुतभेद)- विना किसी रुकावटके अस्खलित गतिसे भावरूप आगममें संचार करनेवाला पुरुष और
उसका ज्ञान जित कहलाता है। जीवगणहानिस्थानान्तर- योगस्थानोंमें अवस्थित जीवोंकी गुणहानिके क्रमसे उत्तरोत्तर हीन संख्यावाले
स्थानोंके अन्तरको जीवगुणहानिस्थानान्तर कहते हैं । जीवनिक ( जीवनीय )स्थान- भुज्यमान आयुके कदलीघातसे जघन्य निर्वृतिस्थानके नीचे जितने समय तक
__जीव जीवित रहता है, ऐसे आयुकर्मके स्थानोंको जीवनिक या जीवनीय स्थान कहते हैं । जीवयवमध्य-आठ, सात और छह आदि समयवाले योगस्थानोंकी जो यवाकार रचना होती है, उसमें आठ
समयवाले मध्यवर्ती योगस्थानोंपर अवस्थित जीवोंके समूहको जीवयवमध्य कहते हैं। जीवसमास- जिन धर्मविशेषों के द्वारा नाना प्रकारके जीव और उनकी विविध जातियोंका संग्रह करके संक्षेपसे
ज्ञान कराया जाता है, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं। प्रकृतमें वह गुणस्थानका पर्यायवाची
नाम है। जीवसमुदाहार-स्थितिबन्धाध्यवसाय आदि स्थानोंपर जीवोंकी विविध अनयोगद्वारोंसे मार्गणा करनेको
जीवसमुदाहार कहते हैं। तेजोजराशि- जिस राशिको चारसे भाजित करनेपर तीन शेष रहें उसे तेजोजराशि कहते हैं। तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा-जिन पौदगलिक वर्गणाओंके द्वारा तैजसशरीरका निर्माण हो, उन्हें तैजसशरीरद्रव्य
वर्गणा कहते हैं। सनाली- लोकाकाशके ठीक मध्य भागमें अवस्थित एक राजु चौड़ी, एक राजु मोटी और चौदह राजु ऊंची
(लम्बी ) लोकनालीको त्रसनाली कहते हैं । समुद्घात और उपपादको छोड़कर शेष सभी अवस्थावाले
त्रस जीव इसीके भीतर रहते हैं। त्रि-अवनत (तियोणद)- सामायिक आदि क्रियाकर्म करते हए आदि, मध्य और अन्तमें भमिपर विनम्र
भावसे बैठने और झुककर वन्दना करनेको त्रि-अवनत कहते हैं। त्रिस्थानिक बन्ध- लता, दारु और अस्थि रूप त्रिस्थानीय अनुभागबन्धको त्रिस्थानिक बन्ध कहते हैं। दाहस्थिति- उत्कृष्ट स्थितिके बन्धयोग्य' संक्लेशका नाम दाह है, उस दाहकी कारणभूत स्थितिको दाहस्थिति
कहते हैं ।
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