Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 960
________________ सिद्धान्त-शब्द-परिभाषा [ ८३५ उलुंचन- मिट्टीका एक पात्रविशेष । ऊहा- जिसके द्वारा अवग्रहसे ग्रहण किये गये अर्थके नहीं जाने गये विशेषकी तर्कणा की जाती है, उसे कहा कहते हैं । यह ईहाका पर्यायवाची नाम है। एकप्रदेशगणहानिस्थानान्तर- एक गुणहानिके समयोंमें प्रतिसमय होनेवाली प्रदेशोंकी हानिको एकप्रदेशगणहानि स्थानान्तर कहते हैं। एकस्थानिक बन्ध- प्रस्तुत ग्रन्थमें यह पद एक गुणस्थान में बंधने योग्य प्रकृतियोंके लिये प्रयुक्त हुआ है (३, १७४) । वैसे लतास्थानीय अनुभागबन्धको एकस्थानिक बन्ध कहते हैं । एकान्तसाकारप्रायोग्यस्थान- जो परिणामस्थान एकान्तत: साकार ज्ञानोपयोगके योग्य होते हैं, उन्हें एकान्त- . साकारप्रायोग्यस्थान कहते हैं। ओज- जिस राशिमें चारका भाग देनेपर एक या तीन अंक शेष रहे उस राशिको ओज कहते हैं। औदारिकशरीरद्र व्यवर्गणा- जिन पुदगल-वर्गणाओंके द्वारा औदारिक शरीरका निर्माण हो, उन्हें औदारिक शरीरद्रव्यवर्गणा कहते हैं। कर्मनिककाल- आवाधाकालसे रहित जो शेष कर्मस्थिति है, उसे कर्मनिषेककाल अर्थात बंधे हए कर्मोके झड़नेका काल कहते हैं। कर्मस्थिति- कर्मोकी सर्वोत्कृष्ट स्थितिको कर्मस्थिति कहते हैं। कलि-ओज- जिस राशिमें चारका भाग देनेपर एक अंक शेष रहे, वह राशि कलि-ओज कहलाती है। कायस्थिति- विवक्षित किसी एक वनस्पति आदि कायको नहीं छोड़ते हुए लगातार उसी उसी पर्यायके ग्रहण ___ करनेके कालको कायस्थिति कहते हैं । कार्मणशरीरद्रव्यवर्गणा- जो पुद्गल परमाणु आत्माके राग-द्वेषादिका निमित्त पाकर कर्मरूपसे परिणत होते हैं, . उन्हें कार्मणशरीरद्रव्यवर्गणा कहते हैं । कृतयुग्म- जिस राशिको चारसे भाजित करनेपर कुछ भी शेष न रहे अर्थात् जिसमें चारका पूरा भाग चला ___ जावे, उस राशिको कृतयुग्म कहते हैं। कृति- जो राशि वर्ग किये जानेपर वृद्धिको प्राप्त हो और अपने वर्ग से अपने ही वर्गमलको घटाकर वर्ग करनेपर वृद्धिको प्राप्त हो, उसे कृति कहते हैं। कोष्ठा- जैसे भाण्डारका कोठा अपने भीतर विविध धान्यादिको पृथक पृथक् व्यवस्थित रखता है, इसी प्रकार जो बुद्धि कोठेके समान जाने हुए पदार्थका चिरकाल तक स्मरण रखे, उसे कोष्ठा कहते है। क्रियाकर्म- सामायिक आदि आवश्यकोंके समय प्रदक्षिणा, नमस्कार और आवर्त आदि क्रियाओंके करनेको क्रियाकर्म कहते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व- अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। भायोपशमिक सम्यक्त्व-उक्त सातों प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्षुद्र भवग्रहण- सूक्ष्म निगोदिया जीवके सबसे अल्प आयुवाले भवको क्षुद्रभवग्रहणकाल कहते हैं। क्षेत्रप्रत्यास- जीवकी अवगाहनाके द्वारा व्याप्त क्षेत्रको क्षेत्रप्रत्यास कहते है।। गवेषणा- जिसके द्वारा अवग्रहसे ग्रहण किये गये पदार्थ के विशेषका अन्वेषण किया जावे, उसे गवेषणा कहते हैं। यह भी ईहाका दूसरा नाम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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