Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 959
________________ ८३४ ] छक्खंडागम अविभागप्रतिच्छेद- एक परमाणमें सर्वजघन्य रूपसे जो अनुभाग अवस्थित है, जिसका कि बुद्धिसे भी और कोई विभाग या छेद नहीं हो सकता है, उसे अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। असंक्षेपाद्धा- सर्वजघन्य विश्रमणकालपूर्वक सबसे छोटे आयबन्धकालको असंक्षेपाद्धा कहते हैं, जो कि आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। असंख्यातगुणवृद्धि- विवक्षित स्थानसे आगे असंख्यातगुणी वृद्धि होनेको असंख्यातगुणवृद्धि कहते हैं। असंख्यातगुणहानि- विवक्षित स्थानसे आगे असंख्यातगुणी हानि होनेको असंख्यातगुणहानि कहते हैं । असंख्यातभागपरिवृद्धि- विवक्षित स्थानसे आगे असंख्यातवें भाग प्रमाण वृद्धि होनेको असंख्यातभागपरिवृद्धि कहते हैं। असंख्यातभागहानि-विवक्षित स्थानसे आगे असंख्यातवें भाग प्रमाण हानि होने को असंख्यातभागहानि कहते हैं। असंयमाद्धा- जीव जितने समय तक असंयम अवस्थामें रहता है, उतने कालको असंयमाद्धा कहते हैं। असातबन्धक- असाता वेदनीयके बन्ध करनेवाले जीवको असातबन्धक कहते हैं। असाताद्धा ( असात-काल )- असाता वेदनीयके बन्धके योग्य संक्लेशकालको असाताद्धा या असात-काल ___ कहते हैं। आबाधाकाण्डक-कर्मस्थितिके जितने भेदोंमें एक प्रमाणवाली आबाधा होती है, उतने स्थितिभेदोंके समुदायको आबाधाकाण्डक कहते है। आबाधाकाल- बंधनेके पीछे कर्म जब तक उदय या उदीरणारूपसे परिणत होकर बाधा न दे, उतने समयको आबाधाकाल कहते हैं। आमुण्डा- जिसके द्वारा वितकित अर्थका निश्चय किया जावे, उसे आमुण्डा कहते हैं। यह अवायका पर्यायवाची नाम है। आयुष्कबन्धप्रायोग्यकाल- आयुबन्धके योग्य कालको आयुष्कबन्धप्रायोग्यकाल कहते हैं, जो कि मनुष्य और तिर्यंचोंकी अपेक्षा अपने जीवनके तृतीय भागके प्रथम समयसे लगाकर विश्रमणकालके पूर्व तक होता है । आवर्त- मन, वचन और कायकी विशुद्धिके परावर्तनके वारोंको आवर्त कहते हैं । यह भाव-आवर्तका स्वरूप है। दोनों हाथोंके अंजलि-संपूटको प्रदक्षिणाके रूपसे ऊपरसे नीचे घमाते हए पूनः ऊपर अंजलि-संपूटके ले जानेको द्रव्य-आवर्त कहते हैं। आवली- असंख्यात समयोंकी एक आवली होती है। आवश्यक- नियत समयपर कर्तव्य कार्यके करनेको आवश्यक कहते हैं। आवासक- गुणितकौशिक और क्षपितकौशिक जीव भव-भ्रमण करते हुए जिन भवावास, अद्धावास, स, योगावास, संक्लेशावास और उत्कर्षणापकर्षणावासको करता है, उन्हें आवासक कहते हैं। आहारक- औदारिकादि शरीरके योग्य पुदगलोंके ग्रहण करनेवाले जीवको आहारक कहते हैं। ईर्यापथकर्म- केवल योगके निमित्तसे बंधनेवाले कर्मको ईर्यापथकर्म कहते हैं।। ईषन्मध्यमपरिणाम- उत्कृष्ट संक्लेशसे कुछ नीचेके मध्यम परिणामोंको ईषन्मध्यमपरिणाम कहते हैं। ईहा- अवग्रहसे जाने हुए पदार्थोमें उत्पन्न हुए संशयके दूर करने के व्यापारविशेषको ईहा कहते हैं। उत्सपिणीकाल-जिस कालमें जीवोंकी आय, बल, बद्धि और शरीर आदिकी उत्तरोत्तर वद्धि हो; ऐसे कालको उत्सर्पिणी काल कहते हैं । उपक्रमणकाल-किसी विवक्षित जीवराशिके लगातार उत्पन्न होने के कालको उपक्रमणकाल कहते हैं। उपसम्पत्सांनिध्य- द्रव्यका आश्रय करनेवाले कार्यों के सामीप्यको उपसम्पत्सांनिध्य कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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