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सिद्धान्त-शब्द-परिभाषा
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देशावधि- तद्भवमोक्षगामी साधुके परमावधि और सर्वावधि ज्ञानके सिवाय शेष चारों गतियोंके जीवोंके
होनेवाले एकदेशरूप अवधिज्ञानको देशावधि कहते हैं। द्विस्थानिक बन्ध- लता और दारु रूप द्विस्थानिक अनुभागबन्धको द्विस्थानिक बन्ध कहते हैं। धरणी- धरणी अर्थात् पृथ्वी जैसे अपने ऊपर वृक्ष व पर्वत आदिको धारण करती है, उसी प्रकार जो बुद्धि अपने
भीतर ज्ञात अर्थको दीर्घ काल तक धारण करे उसे धरणी कहते हैं । यह धारणाका दूसरा नाम है । धर्मकथा- श्रुतज्ञानके बारह अंगोंमेंसे किसी एक अंगके एक अधिकारके उपसंहारको धर्मकथा कहते हैं। धारणा- अवायसे जाने हुए पदार्थको चिरकाल तक धारण करनेकी अविस्मरणरूप योग्यताको धारणा कहते हैं। ध्रुवशन्यद्रव्यवर्गणा- सान्तर-निरन्तरद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर और प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणाओंके नीचे मध्यवर्ती
ग्रहण करनेके अयोग्य ऐसी पुद्गलवर्गणाओंको ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा कहते हैं। ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा- कार्मणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर और सान्तर-निरन्तरद्रव्यवर्गणाओंके नीचे मध्यवर्ती ग्रहण
करनेके अयोग्य ऐसी पुद्गलवर्गणाओंको ध्रवस्कन्धद्रव्यवर्गणा कहते हैं। नयवाद-ऐहिक और पारलौकिक फलकी प्राप्तिके उपायको नय कहते हैं। उसका वाद अर्थात् कथन जिस
सिद्धान्तके द्वारा किया जाता है, ऐसे श्रुतज्ञानको नयवाद कहते हैं। नयविधि- नैगमादि नयोंके द्वारा जीवादि पदार्थों के स्वरूपका विधान करनेवाले आगमको नयविधि कहते हैं । नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर- नाना गणहानियोंमें जो उत्तरोत्तर एक गुणहानिसे दूसरी गुणहानिका द्रव्य
आधा आधा होता हुआ चला जाता है, उसे नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर कहते हैं । निगोद- जिन अनन्त जीवोंका आहार, श्वासोच्छवास, जीवन और मरण एक साथ होता है; ऐसे वनस्पति
कायिक साधारणशरीरवाले जीवोंको निगोद कहते हैं। निरन्तरअपक्रमणकाल- अन्तर-रहित अपक्रमणकालको निरन्तरअपक्रमणकाल कहते हैं। निरन्तरउपक्रमणकाल- अन्तर-रहित जीवोंकी उत्पत्तिके कालको निरन्तरउपक्रमणकाल कहते हैं । निरन्तरसमय उपक्रमणकाल- प्रथम उपक्रमणकाण्डकके कालको निरन्तरसमयउपक्रमणकाल कहते हैं। निर्लेपनकाल- कर्म-निषेकोंके निर्जीव होनेके कालको निर्लेपनकाल कहते हैं। निवत्तिपर्याप्त- अपने योग्य पर्याप्तियोंके पूर्ण करनेवाले जीवको निवृत्तिपर्याप्त कहते हैं। निषेक - समागत कर्मवर्गणाओंमेंसे कर्मस्थितिके भीतर एक समयमें दिये जानेवाले द्रव्यको निषेक या कर्मनिषेक
कहते हैं। नैगमनय-जो संग्रह और व्यवहार इन दोनों नयोंके विषयोंको ग्रहण करे, उसे नैगमनय कहते हैं। संकल्पके
द्वारा अनिष्पन्न भी वस्तुका प्रतिपादन करनेवाले उपचार-प्रधान नयको नैगमनय कहते हैं। परम्पराबन्ध - बन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर कर्मरूप पूदगलस्कन्धों और जीवप्रदेशोंके बन्धकी जो स्थिति
पर्यन्त परम्परा बनी रहती है, उसे परम्पराबन्ध कहते हैं। परम्परोपनिधा - पूर्व गुणहानिके द्रव्यसे उत्तर गुणहानिका द्रव्य आधा होता है, इस प्रकार उत्तरोत्तर गुण
हानियोंमें उनके हीयमान द्रव्यके विचार करनेको परम्परोपनिधा कहते हैं। परिवर्तना -- ग्रहण किये हुए अर्थका स्मरण रखनेके लिए उसका हृदयमें पुनः पुनः विचार करना, इसे
परिवर्तना कहते हैं। परिवर्तमानमध्यमपरिणाम - जिन परिणामोंमें स्थित होकर परिणामान्तरको प्राप्त हो, पुनः एक दो आदि
समयोंके द्वारा उन्हीं पूर्व परिणामोंमें आगमन सम्भव होता है, ऐसे मध्यमजातीय परिणामोंको परिवर्तमानमध्ममपरिणाम कहते हैं।
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