Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 900
________________ ५, ४, ५४८ ] बंणाणियोगद्वारे सरीरविस्सासुवचयपरूपणा [ ७७५ अर्णतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३९ ॥ एवं ति चदु-पंच-छ-सत्त- अट्ठ-णव- दस-संखेज्जअसंखेज्ज-अणंत-अणंताणंतगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणतेहि विस्तासुवचरहि उवचिदा ॥ ५४० ॥ भावहानिप्ररूपणाकी अपेक्षा औदारिकशरीरके जो एक गुणयुक्त वर्गणाके द्रव्य हैं वे बहुत हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३८ ॥ जो दो गुणयुक्त वर्गणाके द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३९ ॥ इसी प्रकार तीन चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस, संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त गुणयुक्त वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५४० ॥ दो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण तेसिं छव्विहा हाणी - अनंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी अनंतगुणहाणी || उससे आगे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी छह प्रकारकी हानि होती है- अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यात - गुणहानि और अनन्तगुणहानि ॥ ५४१ ॥ एवं चदुष्णं सरीराणं ॥ ५४२ ॥ इसी प्रकार वैक्रियिक आदि शेष चार शरीरोंकी प्रकृत प्ररूपणा जाननी चाहिए ॥ ५४२ ॥ ओरालि यसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ थोवो ॥ जघन्य औदारिकशरीरका जघन्य पद में जघन्य विस्रसोपचय सबसे स्तोक है ॥ ५४३ ॥ तस्सेव जहणस्स उक्कसपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो ॥ ५४४ ॥ उसी जघन्य औदारिकशरीरका उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ॥ ५४४ ॥ तस्सेव उक्कस्सस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो ॥ ५४५ ।। उसी उत्कृष्ट औदारिकशरीरका जघन्य पदमें जघन्य वित्रसोपचय अनन्तगुणा है ॥५४५॥ तस्सेव उक्क्स्सस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सविस्सासुवचओ अनंतगुणो ॥ ५४६ ॥ उसी उत्कृष्ट औदारिकशरीरका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ॥ ५४६ ॥ एवं वेव्विय- आहार तेजा - कम्मइय सरीरस्स || ५४७ ॥ इसी प्रकार वैक्रयिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी भी प्रकृत प्ररूपणा जाननी चाहिये ॥ ५४७ ॥ जणस्स जहणपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो ॥ ५४८ ॥ औदारिकशरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सम्बन्धी विस्रसोपचयसे जघन्य वैक्रियिकशरीरका जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ॥ ५४८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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