Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 898
________________ ५, ४, ५३० ] बंधणाणियोगद्दारे विस्सासुवचयपरूवणा [७७३ अणंताविस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा ॥ ५२० ॥ ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा ॥ ५२१ ॥ एक एक जीवप्रदेशपर अनन्त विस्रसोपचय उपचित हैं जो सब जीवोंसे अनन्तगुणे हैं ॥ ५२० ॥ वे सब लोकोमेंसे आये हुए विस्रसोपचयोंसे बद्ध हुए हैं ॥ ५२१ ॥ तेसिं चउव्विहा हाणी दव्वहाणि खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ॥५२२॥ उनकी चार प्रकारकी हानि होती है- द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ।। दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५२३ ॥ जे दुपदेसियवग्गणाए दव्या ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५२४ ॥ एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसियछप्पपदेसिय-सत्तपदेसिय-अट्ठपदेसिय - णवपदेसिय-दसपदेसिय - संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसिय बग्गणाए दव्या ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५२५ ॥ द्रव्यहानिप्ररूपणाकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी एकप्रदेशी वर्गणाके जो द्रव्य है वे बहुत हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५२३ ॥ जो द्विप्रदेशी वर्गणाके द्रव्य है वे विशेष हीन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५२४ ॥ इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं और वे प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५२५ ॥ ___ तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण तेसिं पंचविहा-हाणी- अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी ॥ ५२६ ॥ तत्पश्चात् अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पांच प्रकारकी हानि होती है- अनन्तभागहानि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ॥ ५२६ ॥ एवं चदुण्णं सरीराणं ॥ ५२७ ॥ इसी प्रकार वैक्रियिक आदि शेष चार शरीरोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ ५२७ ॥ खेत्तहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियखेत्तोगाढवग्गणाए दव्या ते बहुगा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५२८ ॥ जे दुपदेसियखेत्तोगाढवग्गणाए दव्या ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५२९ ॥ एवं ति-चदु-पंच-छ-सत्त-अट्ठगव-दस-संखेज्ज-असंखेज्ज-पदेसियखेत्तोगाढवग्गणाए दव्या ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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