Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 897
________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड [ ५४, ५०७ फड्डयपरूवणदाए अणताओ वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो मेगं फड्यं भवदि ।। ५०७ ।। एवमणताणि फड्डयाणि अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमण भागो ।। ५०८ ॥ ७७२ ] स्पर्धकप्ररूपणाकी अपेक्षा अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण जो अनन्त वर्गणायें हैं वे सब मिलकर एक स्पर्धक होता हैं ॥ ५०७ ॥ इस प्रकार एक एक औदारिकशरीरस्थानमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण अनन्त स्पर्धक होते हैं ॥ अंतररूणदाए एकेकस्स फड्डयस्स केवडियमंतरं ? ।। ५०९ ।। सव्वजीवेहि अनंतगुणा, एवडियमंतरं ।। ५१० ।। अन्तरप्ररूपणाकी अपेक्षा एक एक स्पर्धकका कितना अन्तर है ? ॥ ५०९ ॥ सब जीवोंसे अनन्तगुणे मात्र अविभागप्रतिच्छेदोंसे अन्तर होता है । इतना अन्तर होता है ॥ ५९० ॥ सरपरूवणदाए अता अविभागपडिच्छेदा सरीरबंधणगुणपण्णच्छेद णणिप्पण्णा ॥ शरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा शरीरके बन्धनके कारणभूत गुणोंका बुद्धिसे छेद करनेपर उत्पन्न हुए पूर्वोक्त अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥ ५११ ॥ छेदणा पुण दसविहा ।। ५१२ ।। सामान्यतया छेदन दस प्रकारके हैं । ५१२ ॥ यथा णामणा दवियं सरीरबंधण गुणप्पदेसा य । वल्लरि अणुत्तडे य उप्पइया पण्णभावे य ।। ५१३ ॥ नामछेदना, स्थापनाछेदना, द्रव्यछेदना, शरीरबन्धन गुणछेदना, प्रदेशछेदना, वल्लरिछेदना, अणुछेदना, तटछेदना, उत्पातछेदना और प्रज्ञाभावछेदना; इस प्रकार छेदना दस प्रकारकी है ॥ अप्पा हुए ति सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा || ५१४ ॥ उव्वसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा ।। ५१५ ।। आहारसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा ॥। ५१६ || तेयासरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा ।। ५१७ ।। कम्मइयसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा ।। ५१८ ।। Jain Education International अल्पबहुत्त्वकी अपेक्षा औदारिकशरीर के अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं ॥ ५१४ ॥ उनसे वैक्रियिकशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ॥ ५१५ ॥ उनसे आहारकशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ॥ ५९६ ॥ उनसे तैजसशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ॥ ५१७ ॥ उनसे कार्मणशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे है ॥ ५९८ ॥ विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केक्कम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा १ ॥ विस्रसोपचयप्ररूपणाकी अपेक्षा एक एक जीवप्रदेशपर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ? ॥ ५१९ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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