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५, ४, ४५६] बंधणाणियोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
[७६७ तथा वह चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हो जाता है ॥ ४४२ ॥ तस्स चरिमसमय तब्भवत्थस्स तस्स वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्स पदेसग्गं ॥४४३॥
ऐसे उस अन्तिम समयवर्ती तद्भवस्थ हुए जीवके वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४४३ ॥
तव्वदिरित्तमणुक्कस्सा ॥ ४४४॥ उक्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्रसे भिन्न उसका अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्र जानना चाहिये ॥ ४४४ ॥
उक्कस्सपदेण आहारसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ? ॥४४५॥ अण्णदरस्स पमत्तसंजदस्स उत्तरसरीरं विउव्वियस्स ॥ ४४६ ॥
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आहारशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है ? ।। ४४५॥ वह उत्तरशरीरकी विक्रिया करनेवाले अन्यतर प्रमत्तसंयतके होता है ॥ ४४६ ॥
तेणेवपढमसमए आहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्स जोगेण आहारिदो ॥ ४४७ ॥ उक्कसियाए पड्ढिए वड्ढिदो ॥ ४४८ ॥ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुँ सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥ ४४९ ॥
वही प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग द्वारा आहारको ग्रहण किया करता है ।। ४४७ ॥ वह उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है ॥ ४४८ ॥ वह सबसे लघु अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो जाता है ॥ ४४९ ॥
तस्स अप्पाओ भासद्धाओ ॥ ४५० ॥ अप्पाओ मनजोगद्धाओ ॥४५१॥ णत्थि छविच्छेदा ॥ ४५२ ॥
उसका सम्भाषणकाल अल्प होता है ।। ४५० ॥ उसका चिन्तनकाल अल्प होता है ॥ ४५१ ।। उसके शरीरपीडाजनक क्रियाविशेष नहीं होते हैं ।। ४५२ ॥
थोवावसेसे णियत्तिदव्यए ति जोगवमज्झट्ठाणाए मितद्धमच्छिदो ॥ ४५३ ॥ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ४५४ ॥ चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सयं जोगं गदो ॥ ४५५ ॥
निवृत्त होने के कालके थोडा शेष रह जानेपर वह योगयवमध्यस्थानके ऊपर परमित काल तक रहता है ॥ ४५३ ।। अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरोंमे वह आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहता है । ४५४ ।। वह चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त होता है ॥ ४५५ ॥
तस्स चरिमसमयणियत्तमाणस्स तस्स आहारसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं ॥४५६॥
निवृत्त होनेवाले उक्त प्रमत्तसंयतके अन्तिम समयमें आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४५६ ॥
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