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छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
[५, ४, ४२८
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्स जोगं गदो ॥ ४२८ ॥ चरम और द्विचरम समयमें वह उत्कृष्ट योगको प्राप्त होता ।। ४२८ ॥ तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स ओरालियसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं ॥
उस अन्तिम समयमें तद्भवस्थ हुए उस जीवके औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४२९ ॥
तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥ ४३० ॥ - आकर्षण वश उक्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्रमेंसे उत्तरोत्तर एक दो आदि परमाणुओंके हीन होनेपर उसका अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४३० ॥
उक्कस्सपदेण वेउब्धियसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ? ॥ ४३१ ॥ अण्णदरस्स आरण-अच्चुदकप्पवासियदेवस्स वावीससागरोवमट्ठिदियस्स ॥४३२ ॥
. उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ४३१ ॥ वह बाईस सागरकी स्थितिवाले आरण और अच्युत कल्पवासी अन्यतर देवके होता है ॥ ४३२ ।।
तेणेव पढमसमए आहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्स जोगेण आहारिदो ॥ ४३३ ॥ उक्कस्सियाए वढिए वड्ढिदो ॥ ४३४ ॥ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तपदो ॥ ४३५ ॥
वह प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आग्रहको ग्रहण किया करता है ।। ४३३ ॥ उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है ।। ४३४ ॥ वह अन्तर्मुहूर्त कालमें शीघ्र ही सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होता है ।। ४३५ ॥
तस्स अप्पाओ भासद्धाओ॥ ४३६ ॥ अप्पाओ मणजोगद्धाओ ॥ ४३७॥ उसका सम्भाषणकाल अल्प होता है ॥ ४३६ ॥ उसका चिन्तनकाल अल्प होता है । णत्थि छविच्छेदा ॥ ४३८ ।। अप्पदरं विउव्विदो ॥ ४३९ ॥ उसके छविच्छेद नहीं होते ॥ ४३८ ॥ वह अतिशय अल्प विक्रिया किया करता है । थोवावसेसे जीविदव्चए त्ति जोगजवमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो ॥ ४४० ॥ वह जीवितके स्तोक शेष रहजानेपर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है ।। चरिमे जीवगुणहाणिहाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ।। ४४१ ॥
वह अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरोंमें आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रहता है ॥ ४४१ ॥
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगंगदो ।। ४४२ ।।
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