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५, ४, ४८४]
बंधणाणियोगद्दारे सरीरपरूवणाएपद-मीमांसा
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असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहता है ॥ ४७१ ॥ जो द्विचरम और त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है ॥ ४७२ ॥ जो चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त होता है ।
तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स तेजइयसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं ॥४७४॥ उस चरम समयवर्ती तद्भवस्थ अन्यतर जीवके तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है । तव्वदिरित्तमणुक्कस्स ॥ ४७५ ॥ उससे भिन्न उसका अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४७५ ॥ उक्कस्सपदेण कम्मइयसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ? ॥ ४७६ ॥ उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ४७६ ॥
जो जीवो बादरपुढविजीवेसु वेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि ऊणियं कम्मट्टिदिमच्छिदो जहा वेदणाए वेदणीयं तहा णेयव्वं ।। ४७७ ॥
जो जीव बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें दो हजार सागरोपमोंसे कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहता है, इस क्रमसे जिस प्रकार वेदना द्रव्य विधानमें वेदनाद्रव्यके स्वामीकी प्ररूपणा (देखिये वे. द्र. वि. सूत्र ७-३२) की गई है उसी प्रकार यहां कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रके स्वामीकी प्ररूपणा जानना चाहिये ॥ ४७७ ॥
जहण्णपदेण ओरालियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स? ॥ ४७८ ॥ अण्णदरस्स सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स ॥ ४७९ ॥ पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्ण जोगिस्स तस्स ओरालियसरीरस्स जहण्णं पदेसग्गं ॥ ४८० ॥
जघन्य पदकी अपेक्षा औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥४७८॥ वह अन्यतर सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्तके होता है ॥ ४७९ ॥ जो कि प्रथम समयवर्ती आहारक होकर तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें जघन्य योगसे युक्त होता है उसके औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र होता है ॥ ४८० ॥
तव्वदिरित्तमजहण्णं ॥ ४८१ ॥ उससे भिन्न उसका अजघन्य प्रदेशाग्र होता है ॥ ४८१ ॥
जहण्णपदेण वेउब्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ? ॥ ४८२ ॥ अण्णदरस्स देव-णेरइयस्स असण्णिपच्छायदस्स ॥ ४८३ ॥
जघन्य पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ४८२ ॥ असंज्ञियोंमेंसे आये हुए अन्यतर देव और नारकी जीवके होता है ॥ ४८३ ॥
पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स वेउव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं ॥ ४८४ ॥
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