Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 893
________________ ७६८] छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं [५, ४, ४५७ तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥ ४५७ ॥ उससे भिन्न उसका अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४५७ ॥ उक्कस्सपदेण तेजासरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ? ॥ ४५८ ॥ उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥ ४५८ ।। अण्णदरस्स ॥४५९ ॥ जो जीवो पुचकोडाउओ अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु आउअं बंधदि ॥४६०॥ कमेण कालगदसमाणो अधो सत्तमाए पुढविए उववण्णो ॥४६१॥ तदो उव्वविदसमाणो पुणरवि पुचकोडाउएसु उववण्णो ॥ ४६२ ॥ उसका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अन्यतर जीवके होता है ॥ ४५९ ॥ जो पूर्वकोटिकी आयुवाला जीव नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें आयुकर्मको बांधता है ॥ ४६० ॥ फिर जो क्रमसे मरणको प्राप्त होकर नीचें सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होता है ॥ ४६१ ॥ पश्चात् जो वहांसे निकलकर फिर भी पूर्वकोटिकी आयुवालोंमें उत्पन्न होता है ॥ ४६२ ॥ तेणेव कमेण आउअमणुपालइत्ता तदो कालगदसमाणो पुणरवि अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो ॥ ४६३ ॥ तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो ॥ ४६४ । उक्कस्सियाए वढिए वढिदो ॥ ४६५ ॥ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वमहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥ ४६६ ॥ तत्थ य भवडिदिं तेत्तीस सागरोवमाणि आउअमणुपालयित्ता ।। ४६७ ॥ बहुसो बहुसो उक्कस्सयाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥ ४६८ ॥ बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ ४६९ ॥ उसी क्रमसे वह आयुका परिपालन करके मरा और फिरसे भी नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ४६३ ॥ वह प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया करता है ॥ ४६४ ॥ वह उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है ॥ ४६५ ॥ वह सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो जाता है ॥ ४६६ ॥ वहां वह तेतीस सागरोपम काल तक आयुका उपभोग करता हुआ ॥ ४६७ ॥ बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है ॥ ४६८ ॥ बहुत बहुत बार प्रचुर संक्लेश परिणामवाला होता है ॥ ४६९ ॥ एवं संसरिदण थोवावसेसे जाविदव्बए त्ति जोगजवमज्झस्स उपरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो ॥ ४७० ॥ चरिमे जीवगुणहाणिहाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ४७१ ॥ दुचरिम-तिचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसं गदो ॥ ४७२ ॥ चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्स जोगं गदो ।। ४७३ ॥ ___ इस प्रकार परिभ्रमण करके जो जीवितके स्तोक शेष रहजानेपर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है ।। ४७० ॥ जो अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरोंमें आवलिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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