Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 875
________________ ७५० छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं [५, ४, २४२ पदेसपमाणुगमेण ओरालियसरीरस्स केवडियं पदेसग्गं ? ॥ २४२ ॥ प्रदेशप्रमाणानुगमकी अपेक्षा औदारिकशरीरका कितना प्रदेशपिण्ड है ? ॥ २४२ ॥ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागा ॥ २४३ ॥ उसका प्रदेशपिण्ड अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भाग है ॥ २४३ ॥ एवं चदुण्हं सरीराणं ॥ २४४॥ जिस प्रकार पूर्व सूत्रमें औदारिकशरीरके प्रदेशोंका प्रमाण अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भाग निर्दिष्ट किया गया है उसी प्रकार शेष चारों शरीरोंके भी प्रदेशोंका प्रमाण समझना चाहिये ॥ २४४ ॥ णिसेयपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति- समुक्कित्तणा पदेसपमाणाणुगमो अणंतवरोणिधा परंपरोवणिधा पदेसविरओ अप्पाबहूए त्ति ॥२४५॥ निषेक प्ररूपणाकी अपेक्षा यहां ये छह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-- समुत्कीर्तना, प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविरच और अल्पबहुत्त्व ॥ २४५ ॥ समुक्तित्तणदाए ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमय आहारएण पढमसमय तब्भवत्थेण ओरालिय-वेउविय-आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि किंचि विसमयमच्छदि किंचि तिसमयमच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण तिणिपलिदोवमाणि तेत्तीस सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तं ॥ २४६ ॥ समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा जो औदारिकशरीरवाला वैक्रियिकशरीरवाला और आहारकशरीरवाला जीव है उसी प्रथम समयमें आहारक और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए जीवके द्वारा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें बांधा गया है उसमेंसे कुछ प्रदेशाग्र एक समय रहता है, कुछ दो समय रहता है, और कुछ तीन समय रहता है; इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे वह क्रमशः तीन पल्य तेत्तीस सागर और अन्तर्मुहूर्त तक रहता है ॥ २४६ ॥ तेयासरीरिणा तेजासरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि किंचि विसमयमच्छदि किंचि तिसमयमच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण छावहिसागरोवमाणि ॥ २४७ ॥ __ तैजसशरीरवाले जीवके द्वारा तैजसशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें बांधा गया हैं उसमेंसे कुछ जीवमें एक समय रहता है, कुछ दो समय रहता है और कुछ तीन समय रहता है; इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे वह छयासठ सागरोपम काल तक रहता है ॥ २४७ ॥ कम्मइयसरीरिणा कम्मइयसरीरत्ताए जं पदेसगं णिसित्तं तं किंचि जीवे समउत्तरावलियमच्छदि, किंचि विसमउत्तरावलियमच्छदि, किंचि तिसमउत्तरावलियमच्छदि, एवं जाव उक्कस्सेण कम्महिदि त्ति ॥ २४८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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