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७०६] छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
[५, ५, ७१ यह अवधिज्ञानका क्षेत्र नीचेकी ओरका निर्दिष्ट किया गया है। उक्त देव अवधिज्ञानके द्वारा ऊपर अपने अपने विमानके शिखर पर्यन्त ही जानते हैं । उनके अवधिज्ञानके कालका प्रमाण ब्रम्ह-ब्रम्होत्तर कल्पतक क्रमसे असंख्यात वर्ष, पल्योपमके असंख्यातवें भाग, और पल्योपमके असंख्यातवें भाग, मात्र है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर कल्पसे ऊपर उपरिम प्रैवेयक तक उक्त अवधिज्ञानके विषयभूत कालका प्रमाण कुछ कम पल्योपम मात्र है ।
आणद-पाणदवासी तह आरण-अच्चुदा य जे देवा । पस्संति पंचमखिदिं छट्ठिम गेवज्जया देवा ।। ७१ ॥
आनन्त-प्राण तक कल्पवासी और आरण-अच्युत कल्पवासी देव पांचवीं पृथिवी तक तथा प्रैवेयकके देव छठी पृथिवी तक देखते हैं ।। ७१ ॥
सव्वं च लोगणालिं पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागं च ॥७२॥
अनुत्तरोंमें रहनेवाले जो देव हैं वे सब ही लोकनालीको देखते हैं। ये सब देव अपने क्षेत्रके जितने प्रदेश हों उतनी बार अपने अपने कर्ममें मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका भाग देनेपर जो अन्तिम रूपगतपुद्गलद्रव्य लब्ध आता है उसे जानते हैं ॥ ७२ ॥
इस प्रकार देशावधिके विषयभूत द्रव्य-क्षेत्रादिका निरूपण करके अब आगे परमावधिके विषयभूत उक्त द्रव्य-क्षेत्रादिकी प्ररूपणाके लिये आगेका गाथासूत्र प्राप्त होता है
परमोहि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि समयकालो दु । रूवगद लहइ दव् खेत्तोवमअगणिजीवेहि ॥ ७३ ॥
परमावधिज्ञानका क्षेत्र असंख्यात घनलोक प्रमाण और उसका समयरूप काल भी असंख्यात लोक प्रमाण है । वह द्रव्यकी अपेक्षा क्षेत्रोपम अग्निकायिक जीवोंके द्वारा परिच्छिन्न होकर प्राप्त हुए रूपगत द्रव्यको जानता है ॥ ७३ ॥
यह परमावधिज्ञान संयतोंके ही होता है, असंयतोंके नहीं होता तथा उसका धारक जीव मिथ्यात्व एवं असंयतभावको कभी भी नहीं प्राप्त होता है। इससे यह भी समझना चाहिये कि परमावधि ज्ञानी जीव मर करके देवोंमें भी नहीं होता है, क्योंकि, वहां संयमका अभाव है । उसका उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात घनलोक प्रमाण तथा उत्कृष्ट काल भी असंख्यात लोक प्रमाण है । क्षेत्रसे अभिप्राय अग्निकायिक जीवोंके अवगाहनास्थानोंका है। इस क्षेत्रसे जिनकी तुलना की जाती है, उन अग्निकायिक जीवोंको क्षेत्रोपम जानना चाहिये । उनको शलाकारूपसे स्थापित कर उनके द्वारा परिच्छिन्न जो अनन्त परमाणु समारब्ध रूपगत द्रव्य प्राप्त होता है वह उसके विषयभूत उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण जानना चाहिये।
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