Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 845
________________ ७२०] छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं । ५, ६, १३ जो वह आगमभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, गन्थसम, नामसम और घोषसम; इस नौ प्रकार श्रुतज्ञानके विषयमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तुव, स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और भी जो अन्य उपयोग हैं उनमें भावरूपसे जितने उपयुक्त भाव हैं वह सब आगमभाव बन्ध है ॥ जो सो णोआगमदो भावबंधो णाम सो दुविहो- जीव भावबंधो चेव अजीव भावबंधो चेव ॥ १३ ॥ जो वह नोआगमभावबन्ध है वह दो प्रकारका है- जीव नोआगम भावबन्ध और अजीव नोआगम भावबन्ध ॥ १३ ॥ जो सो जीवभावबंधो णाम सो तिविहो- विवागपञ्चइयो जीवभावबंधो चेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइओ जीव भावबंधो चेव ।। १४ ॥ ___ जीवभावबन्ध तीन प्रकारका है- विपाकप्रत्ययिकजीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध ।। १४ ।। कर्मोके उदय और उदीरणाका नाम विपाक तथा इन दोनोंके अभावमें जो उनका उपशम अथवा क्षय होता है उसका नाम अविपाक है । विपाकके निमित्तसे होनेवाले भावको विपाकप्रत्यय तथा अविपाकके निमित्तसे होनेवाले भावको अत्रिपाकप्रत्यय कहा जाता है। कर्मोके उदय और उदीरणासे तथा उनके उपशम और क्षयसे भी जो भाव उदित होता है उसको तदुभयप्रत्यय जीवभावबन्ध जानना चाहिये। जो सो विवागपञ्चइयो जीवभावबंधो णाम तत्थ इमो णिदेसो-देवे त्ति वा मणुस्से त्ति वा तिरिक्खे ति वा णेरइए त्ति वा इत्थिवेदे त्ति वा पुरिसवेदे त्ति वा णqसयवेदे त्ति वा कोहवेदे त्ति वा माणवेदे त्ति वा मायवेदे त्ति वा लोहवेदे त्ति वा रागवेदे त्ति वा दोसवेदे त्ति वा मोहवेदे त्ति वा किण्हलेसे त्ति वा णीललेस्से- त्ति वा काउलेस्से त्ति वा तेउलेस्से त्ति वा पम्मलेस्से त्ति वा सुक्कलेस्से त्ति वा असंजदे त्ति वा अविरदे त्ति वा अण्णाणे त्ति वा मिच्छादिहि त्ति वा जे चामण्णे एवमादिया कम्मोदयपञ्चइया उदयविवागणिप्पण्णा भावा सो सव्वो विवागपञ्चइयो जीवभावबंधो णाम ॥ १५ ॥ __ जो वह विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है- देवभाव, मनुष्यभाव, तिर्यंचभाव, नारकभाव, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसंकवेद, क्रोधवेद, मानवेद, मायावेद, लोभवेद, रागवेद, दोषवेद, मोहवेद, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, असंयतभाव, अविरतभाव, अज्ञानभाव और मिथ्यादृष्टिभाव; तथा इसी प्रकार और भी जो कर्मोदयप्रत्ययिक उदयविपाकसे उत्पन्न हुए भाव हैं वे सब विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध हैं ॥ १५ ॥ उपर्युक्त सब देव-नारकादि भाव चूंकि विवक्षित देवगति नामकर्म आदिके उदयसे उत्पन्न हुआ करते हैं, अत एव उनको विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्धभाव कहा गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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