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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
[५, ५, १५९ सेसं वेदणाए भंगो ॥ १५९ ॥ शेष अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदना अनुयोगद्वारके समान है ॥ १५९ ॥
।। इस प्रकार प्रकृतिनामक अनुयोगद्दार समाप्त हुआ ॥ ५ ॥
६. बंधणाणियोगद्दारं बंधणे त्ति चउबिहा कम्मविभासा-बंधो बंधगा बंधणिज्जं बंधविहाणे त्ति ॥१॥ उक्त चौबीस अनुयोगद्वारों में अब बन्धन नामका छठा अनुयोगद्वार अधिकारप्राप्त है ।
उसमें 'बन्धन' की कर्मविभाषा कर्मबन्धनका व्याख्यान चार प्रकारका है- बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान ।। १ ।।
अभिप्राय यह है कि 'बन्धन' इस शब्दको जब 'बन्धः बन्धनं ' इस प्रकार भावसाधनमें सिद्ध किया जाता है तब उस अर्थ बन्धका एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ संयोग तथा द्रव्यका उसके भावोंके साथ समवाय - होता है। 'बध्नातीति बन्धनः' इस प्रकारसे यदि उस बन्धन शब्दको कर्तृसाधनमें निष्पन्न किया जाता है तो उसका अर्थ बन्धकद्रव्य व भाव रूप बन्धका कर्ता (आत्मा)- होता है । 'बध्यते इति बन्धनः' इस प्रकारसे यदि उसे कर्मसाधनमें सिद्ध किया जाता है तो उसका अर्थ बन्धनीय- बन्धके योग्य पुद्गल द्रव्य-- होता है। तथा यदि उसे 'बध्यते अनेन इति बन्धनम् ' इस प्रकारसे करणसाधनमें सिद्ध किया जाता है तो उसका अर्थ बन्धविधान- प्रकृतित्व स्थिति आदिरूप बन्ध भेद होता है। इस प्रकार बन्धन शब्दके उक्त चारों अर्थोकी विवक्षा करके इस अनुयोगद्वारमें क्रमसे बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध भेदोंकी प्ररूपणा की गई है।
जो सो बंधो णाम सो चउविहो- णामबंधो दुवणबंधो दव्वबंधो भावबंधो चेदि ॥२॥ __बन्धके चार भेद हैं- नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ॥ २ ॥
बंधणयविभासणदाए को णओ के बंधे इच्छदि ? ॥३॥ णेगम-ववहार-संगहा सव्वे बंधे ॥४॥ उजुसुदो ठवणबंधं णेच्छदि ॥५॥ सदणओ णामबंधं भावबंधं च इच्छदि ।
नयकी अपेक्षा बन्धका विशेष विचार करनेपर कौन नय किन बन्धोंको स्वीकार करता है ? ॥ ३ ॥ नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब बन्धोंको स्वीकार करते हैं ॥ ४ ॥ ऋजुसूत्रनय स्थापनाबन्धको स्वीकार नहीं करता ॥ ५ ॥ शब्दनय नामबन्ध और भावबन्धको स्वीकार करता है ॥ ६॥
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