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५, ३, १३१ ] बंधणाणियोगद्दारे निगोदसरीरपरूवणा
[ ७३९ एगणिगोदसरीरे जीवा दव्यप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेण वि तीदकालेण ॥ १२८ ॥
एक निगोदशरीरमें अवस्थित जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा सबही अतीत कालमें सिद्ध हुए जीवोंसे भी अनन्तगुणे देखे गये हैं ॥ १२८ ॥
निगोद जीव दो प्रकारके हैं- चतुर्गति-निगोद जीव और नित्यनिगोद जीव । जो जीव देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर पुनः निगोदमें जाकर अवस्थित होते हैं वे चतुर्गतिनिगोद जीव कहे जाते हैं । और जो जीव सर्वदा निगोदमें ही रहनेवाले हैं वे नित्यनिगोद जीव कहलाते हैं । उन नित्यनिगोद जीवोंके परिणाममें इतनी अधिक संक्लेशकी प्रचुरता होती है कि जिसके कारण वे कभी उस निगोद अवस्थाको छोड़कर त्रस पर्यायको नहीं प्राप्त कर सकते हैं । उन निगोद जीवोंके शरीर असंख्यात लोक मात्र हैं और उनमेंसे प्रत्येक शरीरमें अनन्त जीव रहते हैं, जिनका प्रमाण समस्त अतीत कालमें सिद्ध हुए जीवोंकी अपेक्षा भी अनन्तगुणा है। यही कारण है जो प्रत्येक छह महिने और आठ समयोंमें छह सौ आठ जीवोंके निरन्तर सिद्ध होनेपर भी संसारी जीवोंका कभी अभाव नहीं होता। कारण यह है कि आयसे रहित जिन संख्याओंका व्ययके होनेपर विनाश सम्भव है वे संख्याएँ संख्यात और असंख्यात कही जाती हैं और जिन आयरहित संख्याओंका संख्यात और असंख्यात स्वरूपसे व्ययके होनेपर भी कभी विनाश सम्भव नहीं है वे संख्याएँ अनन्त कही जाती हैं । असंख्यात लोक प्रमाण उन निगोद शरीरोंमेंसे चूंकि एक एक शरीरमें ही जब अनन्त जीव अवस्थित हैं तब निरन्तर व्ययके होनेपर भी कभी संसारी जीवराशिका अन्त नहीं हो सकता है । यह उपर्युक्त दो गाथासूत्रोंका अभिप्राय समझना चाहिये ।
एदेण अट्टपदेण तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि णादव्याणि भवंति-संतपरूवणा दव्वपमाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ॥ १२९ ॥
इस अर्थपदके अनुसार यहां ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं- सत्यरूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ॥ १२९॥
संतपरूवणदाए दुविहो णिदेसो- ओघेण ओदेसेण ॥ १३० ॥ सत्प्ररूपणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश । ओघेण अस्थि जीवा विसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा असरीरा ॥१३१ ॥ ओघसे दो शरीरवाले तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले, और शरीररहित जीव हैं ॥१३१॥
विग्रहगतिमें अवस्थित जीवोंके चूंकि तैजस व कार्मण ये दो ही शरीर पाये जाते हैं, अत एव 'द्विशरीर' से यहां उनको ग्रहण किया गया है। जिन जीवोंके औदारिक, तैजस और कार्मण अथवा वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर पाये जाते हैं उन्हें त्रिशरीर तथा
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