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५, ५, ७८ ]
पयडिअणिओगद्दारे ओहिविसओ
[७०७
तेयासरीरलंबो उक्कस्सेण दु तिरिक्खजोणिणिसु । गाउअ जहण्णओही णिरएसु अ जोयणुक्कस्सं ॥ ७४ ॥
पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंके अवधिज्ञानका द्रव्य तैजसशरीरका संचयभूत उत्कृष्ट द्रव्य होता है । नारकियोंमें जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र गव्यूति प्रमाण और उत्कृष्ट क्षेत्र योजन प्रमाण है ॥ ७४ ॥
उक्कस्स माणुसेसु य माणुस-तेरिच्छए जहण्णोही ।। उक्कस्स लोगमेत्तं पडिवादी तेण परमपडिवादी ।। ७५ ॥
उत्कृष्ट अवधिज्ञान मनुष्योंके तथा जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच दोनोंके होता है । उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र लोक प्रमाण है। यह प्रतिपाती है, इससे आगेके अवधिज्ञान अप्रतिपाती हैं ।। ७५ ।।
___ अभिप्राय यह है कि उत्कृष्ट अवधिज्ञान देव, नारकी और तिर्यंचोंके नहीं होता; किन्तु वह मनुष्योंके और उनमें भी महर्षियोंके ही होता है, न कि साधारण मनुष्योंके। जघन्य अवधिज्ञान देव व नारकियोंके नहीं होता, किन्तु मनुष्य व तिर्यंच सम्यग्दृष्टियोंके ही होता है । औदारिक शरीरमें एक घनलोकका भाग देनेपर जो प्राप्त हो वह जघन्य अवधिके विषयभूत द्रव्यका प्रमाण होता है। क्षेत्र उसका जघन्य अवगाहना मात्र घनांगुलके असंख्यातवें भाग है। इस जघन्य अवधिज्ञानके विषयभूत कालका प्रमाण आवलिका असंख्यातवां भाग है। मनुष्योंमें उत्कृष्ट अवधिज्ञानका द्रव्य एक परमाणु तथा उसका क्षेत्र व काल दोनों असंख्यात लोक मात्र है।
देशावधिके विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाण लोक और कालका प्रमाण एक समय कम पल्य है । देशावधिज्ञानी जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जानेपर चूंकि उसका उसी भवमें विनाश पाया जाता है, अतः वह प्रतिपाती है । किन्तु परमावधि और सर्वावधि ये दोनों अवधिज्ञान नष्ट न होकर चूंकि जीवके केवलज्ञानकी प्राप्ति होने तक अवस्थित रहते हैं, अत एव ये दोनों ज्ञान अप्रतिपाती हैं । इस प्रकार जघन्यसे उत्कृष्ट तक जिसने उस अवधिज्ञानके विकल्प सम्भव हैं उतनी अवधिज्ञानावरणीयकी प्रकृतियां समझना चाहिये ।
मणपज्जवणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥७६॥ मणपज्जणाणावरणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ- उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं चेव विउलमदि मणपज्जवणाणावरणीय चेव ।। ७७ ॥
मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां है ? ॥ ७६ ॥ मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्मकी दो प्रकृतियां है-- ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानावरणीय और विपुलमतिमन :पर्यायज्ञानावरणीय ।।
जं तं उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं तं तिविहं- उजुगं मणोगदं जाणदि उजुगं वचिगदं जाणदि उजुगं कायगदं जाणदि । ७८ ।।
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