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७१०] छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
[ ५, ५, ८७ मणेण माणसं पडिविंदइत्ता ।। ८७ ॥ परेसिं सण्णा सदि मदि जीविद-मरणं लाहालाहं सुह-दुःक्खं णयरविणासं देसविणासं जणवयविणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टणविणासं दोणामुहविणासं अदिवुट्ठि अणावुट्टि सुवुट्टि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुभिक्खं खेमाखेमं भयरोग कालसंपजुत्ते अत्थे जाणदि ।। ८८ ॥
___ मन अर्थात् मतिज्ञानसे मनोवर्गणारूप स्कन्धोंसे निर्मित मनको अथवा मतिज्ञानके विषयको ग्रहण करके पश्चात् मनःपर्ययज्ञान प्रवृत्त होता है ॥ ८७ ॥ इस विपुलमतिमनःपर्ययके द्वारा जीव दूसरे जीवोंकी कालसे विशेषित संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाश, कर्वटविनाश, मडम्बविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेत्र-अक्षेत्र, भय और रोग रूप इन अर्थोको जानता है ॥ ८८ ॥
किंचि भूओ- अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि ॥ ८९ ॥
उसकी विषयप्ररूपणा कुछ और भी की जाती है- वह व्यक्त मनवाले स्वयं अपने और दूसरे जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है, तथा अव्यक्त मनवाले जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको भी जानता है ॥ ८९ ॥
कालदो ताव जहण्णेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि ॥९० ॥ जीवाणं गदिमागदि पदुप्पादेदि ।। ९१॥
वह कालकी अपेक्षा जघन्यसे सात-आठ भवोंको और उत्कर्षसे असंख्यात भवोंको जानता है ।। ९० ॥ वह इतने कालवी जीवोंकी गति और आगति आदिको जानता है ।। ९१ ।।
खेत्तदो ताव जहण्णेण जोयणपुधत्तं ।। ९२ ॥ उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्स अब्भतरादो णो बहिद्धा ॥ ९३ ॥
क्षेत्रकी अपेक्षा वह जघन्यसे योजनपृथक्त्व प्रमाण क्षेत्रगत अर्थको जानता है ॥ ९२ ॥ तथा उत्कर्षसे वह मानुषोत्तर शैलके भीतर स्थित जीवोंके त्रिकालगोचर मनोगत अर्थकों जानता है, उससे बाहर नहीं जानता है ॥ ९३ ॥
तं सव्वं विउलमदिमणपज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं ॥ ९४ ॥
यह सब उक्त विपुलमतिमनःपर्ययको आवृत करनेवाला विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है ॥ ९४ ॥
केवलणाणावरणीयम्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ ९५ ॥ केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया चेव पथडी ॥९६॥ तं च केवलणाणं सगलं संपुण्णं असवत्तं ॥१७॥
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