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५, ५, ८६ ] पयडिअणिओगद्दारे उजुमदिमणपज्जवणाणपरूवणा [७०९ 'एए छच्च समाणा' इस प्राकृत नियमके अनुसार णकारवर्ती अकारके दीर्घ हो जानसे 'वत्तमाणाणं' ऐसा निष्पन्न हुआ है । अथवा, प्रकृत ‘वत्तमाणाणं' पदका अर्थ 'वर्तमान जीवोंका' ऐसा भी किया जा सकता है । तदनुसार अभिप्राय यह होगा कि उक्त ऋजुमति-मनःपर्ययज्ञान वर्तमान जीवोंके वर्तमान मनोगत तीनों कालों सम्बन्धी वस्तुको जानता है, अतीत व अनागत मनोगत वस्तुकों नहीं जानता है।
कालदो जहण्णेण दो-तिण्णिभवग्गहणाणि ॥८१॥ उक्कस्सेण सत्तभवग्गहणाणि ॥
कालकी अपेक्षा जघन्यसे वह दो- तीन भवोंको जानता है ।। ८१ ॥ उत्कर्षसे वह सात और आठ भवोंको जानता है ॥ ८२ ॥
अभिप्राय यह है कि जघन्यसे वह वर्तमान भवग्रहणके विना दो भवोंको तथा वर्तमान भवग्रहणके साथ तीन भवग्रहणोंको जानता है । इसी प्रकार उत्कर्षसे वह वर्तमान भवग्रहणके विना सात भवग्रहणोंको तथा वर्तमान भवग्रहणके साथ आठ भवग्रहणोंको जानता है ।
जीवाणं गदिमागदिं पदुप्पादेदि ॥ ८३ ॥ जीवोंकी गति और आगतिको जानता है ॥ ८३ ॥ अभिप्राय यह कि वह उपर्युक्त कालमें जीवोंकी गति-आगति आदिको जानता है ।
खेत्तदो तावं जहण्णेण गाउवपुधत्तं उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अभंतरदो, णो बहिद्धा ॥ ८४ ॥
क्षेत्रकी अपेक्षा वह जघन्यसे गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण क्षेत्र और उत्कर्षसे योजनपृथक्त्व प्रमाण क्षेत्रके भीतरकी बातको जानता है, इससे बाहरकी बातको नहीं जानता है ॥ ८४ ।।
तं सबमुजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं ॥ ८५ ॥ वह सब ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है ।। ८५ ॥
अभिप्राय यह कि जो कर्म उस सब ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानको आवृत्त करता है वह सब ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है ।
जं तं विउलमदिमणषज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं तं छव्विहं- उज्जुगमणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं कायगदं जाणदि ॥
जो वह विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है वह छह प्रकारका है- ऋजुमनोगतको जानता है, अनृजुमनोगतको जानता है, ऋजुवचनगतको जानता है, अनृजुवचनगतको जानता है, ऋजुकायगतको जानता है और अनृजुकायगतको जानता है ॥ ८६ ॥
पूर्वके समान यहां भी विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीयसे विपुलमतिमनःपर्ययका ग्रहण समझना चाहिये।
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