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७०० ] छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
[५, ५, ३६ बत्तीस भेद, अड़तालीस भेद, एक सौ चवालीस भेद, एक सौ अड़सठ भेद, एक सौ बानवे भेद, दो सौ अठासी भेद, तीन सौ छत्तीस भेद और तीन सौ चौरासी भेद ज्ञातव्य हैं ॥ ३५ ॥
मूलमें मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे चार प्रकारका है। इनमें प्रत्येक चूंकि पांच इन्द्रियों और मनके आश्रयसे उत्पन्न होता है अत एव ४ को ६ से गुणित करनेपर उसके २४ भेद हो जाते हैं । परन्तु व्यंजनावग्रह चूंकि मन और चक्षुइन्द्रियके विना चार ही इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है, अतः उसके ४ ही भेद होते हैं । उनको उक्त २४ भेदोंमें मिलानेपर उसके २८ भेद हो जाते हैं । इनमें पूर्वोक्त ४ मूल भेदोंके मिला देनेपर उसके ३२ भेद होते हैं । उक्त ४, २४, २८ और ३२ भेदोंमें प्रत्येक चूंकि बहु आदि ६ पदार्थोंको और उनके विपक्षभूत एक व एकविध आदिके साथ १२ पदार्थोंको ग्रहण किया करते हैं, अत एव उनको क्रमशः ६ और १२ से गुणित करनेपर सूत्रोक्त सब भेद इस प्रकारसे प्राप्त हो जाते हैं- ४४६-२४, २४४६=१४४, २८४६=१६८, ३२४६=१९२; ४४१२=४८, २४४१२.-२८८, २८x१२-३३६, ३२४१२ ३८४.
तस्सेव आभिणिबोहियणाणावरणीयकम्मस अण्णा परूवणा कायव्वा भवदि ॥३६॥ उसी आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्मकी अन्य प्ररूपणा की जाती है ।
ओग्गहे योदाणे साणे अवलंबणा मेहा ॥ ३७॥ ईहा ऊहा अपोहा मग्गणा गवेसणा मीमांसा ॥ ३८ ॥ अवायो ववसायो बुद्धी विण्णाणी आउंडी पचाउंडी ॥ ३९ ॥ धरणी धारणा ढवणा कोट्टा पदिट्ठा ॥ ४० ॥ सण्णा सदी मदी चिंता चेदि ॥४१॥
अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा; थे अवग्रहके पर्याय वाची नाम हैं ॥३७॥ ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा; ये ईहाके समानार्थक नाम हैं ॥ ३८ ॥ अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा; ये अवायके पर्याय नाम हैं ॥ ३९ ॥ धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा; ये धारणाके एकार्थ नाम हैं ॥ ४० ॥ संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता; ये आभिनिबोधिक ज्ञानके एकार्थवाची नाम हैं ॥ ४१ ।।
एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स अण्णा परूवणा कदा होदि ॥४२॥ इस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्मकी अन्य प्ररूपणा की गई है ॥ ४२ ॥ सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ ४३ ॥ श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? ॥ ४३ ॥
अवग्रहादिरूप चार प्रकारके मतिज्ञानके द्वारा जाने गये पदार्थके सम्बन्धसे जो अन्य पदार्थका बोध होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। वह दो प्रकारका है शब्दलिंगज और अशब्दलिंगज । इनमें धूमरूप लिंग (साधन ) से जो अग्निका परिज्ञान हुआ करता है उसे अशब्दलिंगज तथा शब्दके आश्रयसे जो अर्थका बोध होता है उसे शब्दलिंगज श्रुतज्ञान कहा जाता है । जो
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