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५, ५, ४९] पयडिअणिओगद्दारे सुदणाणावरणीयपरूवणा [७०१ साध्यके अभावमें कभी नहीं पाया जाता है, उसे लिंग (हेतु) जानना चाहिये । इस श्रुतज्ञानका जो आवरण करता है उसे श्रुतज्ञानावरण कहा जाता है।
सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जाओ पयडीओ ॥ ४४ ॥ जावदियाणि अक्खराणि अक्खरसंजोगा वा ॥ ४५ ॥
श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी संख्यात प्रकृतियां हैं ॥ ४४ ॥ अथवा जितने अक्षर हैं और जितने अक्षरसंयोग हैं उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियां हैं ॥ ४५ ॥
तेसिं गणिदगाधा भवदिसंजोगावरणटुं चउसद्धिं थावएदुवे रासिं । अण्णोण्णसमब्भासो रूवूणं णिद्दिसे गणिदं ॥ ४६ ॥
उन अक्षरसंयोंगोंकी गणनामें यह गाथा उपयोगी है- संयोगावरणोके प्रमाण को लानेके लिये चौसठ संख्याप्रमाण दो राशि स्थापित करें । पश्चात् उनका परस्पर गुणा करनेपर जो लब्ध हो उसमेंसे एक कम करनेपर समस्त संयोगाक्षरोंका प्रमाण होता है ।। ४६ ॥
अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ और औ; ये नौ स्वर हस्व, दीर्घ और प्लुतके भेदसे २७ (९४३ ) होते हैं । क वर्ग ५, च वर्ग ५, ट वर्ग ५, त वर्ग ५ और प वर्ग ५, तथा अन्तस्थ (य, र, ल, व) ४, और ऊष्म (श, ष, स, ह) ४; इस प्रकार व्यंजनाक्षर ३३ हैं। इसके अतिरिक्त अयोगवाह ४ (अं, अः क प) हैं। इन सबका योग ६४ (स्वर २७+ व्यंजन ३३ + अयोगवाह ४=६४) होता है । इनके आश्रयसे श्रुतज्ञान और तदावरणके भी ६४ भेद होते है। उपर्युक्त ६४ अक्षरोंके एक-द्विसंयोगी आदि भंग चूंकि १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ इतने होते हैं, अत एव श्रुतज्ञान और तदावरणके भी इतने ही भेद जानना चाहिये ।
तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायव्वा भवदि ॥४७॥ उसी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी वीस प्रकारकी प्ररूपणा की जाती है ॥ ४७ ॥ पज्जय-अक्खर-पद संघादय- पडिवत्ति-जोगदाराई। पाहुडपाहुड-वत्थू पुव्व समासा य बोद्धव्या ॥४८॥
पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अक्खरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संघादावरणीयं संघादसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीयं अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीयं वत्थुआवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्वावरणीयं पुव्वसमासावरणीयं चेदि ॥ ४९ ॥
___ पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृत- .
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