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छriडागमे वग्गणा - खंड
[ ५, ४, १५
जं तं पओअक मं णाम ।। १५ ।। तं तिविहं- मणपओअकम्मं वचिपओअकम्मं काय ओकम्मं ।। १६ ।। तं संसारावत्थाणं जीवाणं सजोगिकेवलीणं वा ।। १७ ।। तं सव्वं पओकम्मं णाम ।। १८ ।।
अब प्रयोगकर्म अधिकार प्राप्त है ॥ १५ ॥ वह तीन प्रकारका है - मनःप्रयोग कर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म ॥ १६ ॥ वह संसार अवस्थामें स्थित जीवोंके और सयोगिकेवलियों होता है ॥ १७ ॥ वह सब प्रयोगकर्म है ॥ १८ ॥
जं तं समुदाणकम्मं णाम ।। १९ ।। तं अट्ठविहस्स वा सत्तविहस्स वा छव्विहस्स वा कम्मस्स समुदाणदाए गहणं पवत्तदि तं सव्वं समुदाणकम्मं णाम ॥ २० ॥
अब समवदान कर्मका अधिकार है। १९ ॥ यतः आठ प्रकारके; सात प्रकारके, और छह प्रकारके कर्मका भेदरूपसे ग्रहण होता है; अतः वह सब समवदानकर्म है ॥ २० ॥
समवदानतासे यहां भेदका अभिप्राय है । मिथ्यादर्शनादिके कारण जो कार्मण पुद्गलस्कन्ध आठ प्रकार, सात प्रकार और छह प्रकारके कर्मस्वरूपसे परिणमन होता है उस सबको समवदानकर्म समझना चाहिये ।
जं तमाधाकम्मं णाम ।। २१ ।। तं ओदावण-विदावणं- परिदावण- आरंभकदणिफण्णं तं सव्वं आधाकम्मं णाम ।। २२ ॥
अब अधः कर्मका अधिकार है ॥ २१ ॥ वह उपद्रावण; विद्रावण, परितावन और आरम्भ रूप कार्यसे निष्पन्न होता है; वह सब आधाकर्म है || २२ |
जीवको उपद्रवित करनेका नाम उपद्रावण, अंगविच्छेदन आदिरूप व्यापारका नाम विद्रावण; सन्ताप उत्पन्न करनेका नाम परितापन और प्राणियोंके प्राणोंके वियोग करनेका नाम आरम्भ है । कृत शब्दका अर्थ कार्य है । उक्त उपद्रावण आदि कार्योंके द्वारा जो औदारिक शरीर निष्पन्न होता है उसे आधाकर्म जानना चाहिये ।
जं तमरियावहम्मं णाम ।। २३ ।। तं छदुमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमरियावहकम्मं णाम ॥ २४ ॥
अब ईर्यापथकर्मका अधिकार है ॥ २३ ॥ वह छद्मस्थवीतरागोंके और सयोगिकेत्रलियोंक होता है । वह सब ईर्यापिकर्म है ॥ २४ ॥
का अर्थ यहां योग है । जिस कर्मका पथ अर्थात् कारण एक मात्र योग ही रहता है उसको ईर्यापथकर्म जानना चाहिये । वह छद्मस्थवीतरागोंके उपशान्तकषाय व क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानवर्ती जीवों तथा सयोगिकेवली जिनोंके होता है, अन्य संसारी प्राणियोंके वह सम्भव नहीं है; क्योंकि, उनके कर्मके कारण भूत योगके सिवाय यथा सम्भव कषाय एवं प्रमाद आदि भी पाये जाते हैं।
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