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४, २, १३, १) वेयणमहाहियारे वेयणसण्णियासविहाणं
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[६५३ उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा परंपरबंधा ॥९॥ ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना परम्पराबन्ध है ॥ ९॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥१०॥
इसी प्रकार ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा शेष सात कोंके सम्बन्धमें भी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ १०॥
सद्दणयस्स अवत्तव्यं ॥११॥ शब्दनयकी अपेक्षा वह अवक्तव्य है ॥ ११ ॥
॥ इस प्रकार वेदना अनन्तरविधान अनुयोगाद्वार समाप्त हुआ ॥ १२ ॥
१३. वेयणसण्णियासविहाणं वेयणसण्णियासविहाणे ति ॥१॥ अब वेदनासंनिकर्षविधान अनुयोगद्वार अधिकारप्राप्त है ॥ १ ॥
जो सो वेयणसण्णियासो सो दुविहो सत्थाणवेयणसण्णियासो चेव परत्थाणवेयणसण्णियासो चेव ॥ २॥
जो वह वेदनासंनिकर्ष है वह दो प्रकारका है- स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष और परस्थानवेदनासंनिकर्ष ॥ २ ॥
'संणियास' शब्दका अर्थ संनिकर्ष संयोग और संनिकाश [ समानता] भी होता है । जघन्य और उत्कृष्ट इन दो भेदोंमें विभक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव पदोमेसे किसी एक पदकी विवक्षा करनेपर शेष तीन पद क्या उत्कृष्ट होते हैं, अनुत्कृष्ट होते है, जघन्य होते हैं, और या अजघन्य होते हैं। इस प्रकारकी परीक्षाका नाम संनिकर्ष [या संनिकाश] है। वह स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें किसी एक ही कर्मकी विवक्षा करके उक्त पदोंकी जो परीक्षा की जाती है उसका नाम स्वस्थान संनिकर्ष है । आठों कर्मों के विषयमें उक्त पदोंकी परीक्षा करना, यह परस्थान संनिकर्ष कहा जाता है। इस अनुयोगद्वारमें प्रथमतः ज्ञानावरणादि आठ कर्मोमेंसे एक एककी विवक्षा करके उक्त पदोंकी प्ररूपणा की गई है । तत्पश्चात् परस्थानसंनिकर्षकी प्ररूपणामें आठों कोंके विषयमें सामान्यरूपसे उक्त पदोंकी परीक्षा की गई है।
__ जो सो सत्थाणवेयणसण्णियासो सो दुविहो- जहण्णओ सत्थाणवेयणसण्णियासो चेव उक्कस्सओ सस्थाणवेयणसण्णियासो चेव ॥३॥
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