Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 796
________________ ४, २, १३, २३३ ] वेयणमहाहियारे वेयणसण्णियासविहाणं [६७१ जिस ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके आयुको छोड़कर शेष छह कर्मोकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? ॥२२० ॥ उसके वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उत्कृष्टकी अपेक्षा वह अनुत्कृष्ट दो स्थानोंमें पतित है ॥ २२१ ॥ वह अनन्तभागहीन अथवा असंख्यातभागहीन होती है ।। २२२ ॥ तस्स आउअवेयणा दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा १ ॥ २२३ ॥ णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जगुणहीणा ।। २२४ ॥ उसके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? ॥२२३ ॥ उसके वह नियमसे अनुत्कृष्ट और असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ २२४ ॥ एवं छण्णं कम्माणमाउववज्जाणं ॥ २२५ ॥ इसी प्रकारसे आयुको छोड़कर शेष छह कर्मोके प्रकृत संनिकर्षकी प्ररूपणा जानना चाहिये ॥ २२५ ॥ जस्स आउअवेयणा दव्वदो उक्कस्सा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा दव्वदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ २२६ ॥ णियमा अणुक्कस्सा चउहाणपदिदा ॥ २२७ ॥ असंखेज्जभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा ॥ जिसके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके सात कर्मोकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २२६ ॥ वह नियमसे अनुत्कृष्ट चार स्थानोंमें पतित है ।। २२७ ॥ वह असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन और असंख्यातगुणहीन इन चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ २२८ ॥ जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स दंसणावरणीय मोहणीय अंतराइयवेयणा खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ॥ २२९ ।। उक्कस्सा ॥ २३० ॥ जिसके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती हैं उसके दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ॥ २२९ ॥ वह उसके उत्कृष्ट होती है ॥ २३० ॥ तस्स वेयणीय -आउअ - गामा-गोदवेयणा खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ॥ २३१ ॥ णियमा अणुक्कस्सा असंखेज्जगुणहीणा ॥ २३२ ॥ उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? ॥२३१॥ उसके वह नियमसे अनुत्कृष्ट और असंख्यातगुणहीन होती है ॥२३२ ॥ एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ २३३॥ इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायके संनिकर्षकी भी प्ररूपणा जाननी चाहिये ॥ २३३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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